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________________ जून - २०१५ ११३ ११४ अनुसन्धान-६७ में 'दुह' का 'दुन्न' आदेश किया गया है लेकिन प्राकृतप्रकाश की उपर्युक्त टीकानुसार दुह का 'दुज्झ' आदेश होता है । इसी 'दुज्झ' संबंधी पाठ श्रीदशवैकालिकसूत्र के सातवें अध्ययन में "तहेव गाओ दोज्झाओ" के रूप में प्राप्त होता है तथा श्रीआचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के चतुर्थ अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में [२/४/२/५४१] में, "गाओ दोज्झा ति वा" रूप में प्राप्त होता है एवं वर्तमान में भी इसी रूप का प्रयोग देशी भाषा में 'दोझा' आदि के रूप में होता है। यहां बहुत संभव है कि 'म' और 'ज्झ' को पढ़ने में अंतर न समझ पाने का प्रभाव व्याकरण के मूल ग्रन्थों पर भी पड़ा हो । मुनि श्रीपुण्यविजयजी ने भी 'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला' नामक अपनी पुस्तक में यह स्वीकार किया है कि "लेखकों के भ्रांतिमूलक और विस्मृतिमूलक लेखन का असर शब्दशास्त्र (व्याकरणशास्त्र) पर बड़े प्रमाण में हुआ होगा ।" (पृ. ५६) सिद्धहमशब्दानुशासन में 'वह' का कर्मवाच्य में 'वुम' आदेश हो गया है । परवर्ती प्राकृतवैयाकरणों पर उसका अत्यन्त प्रभाव होने से परवर्ती व्याकरणों एवं ग्रन्थों में 'वुम' पाठ देखा जाता है किन्तु उपर्युक्त प्रमाणों से 'वुज्झ' पाठ असंदिग्ध रूप से शुद्ध सिद्ध होता है। उपर्युक्त दो उदाहरणों से यह भलीभांति समझा जा सकता है कि समान दिखने वाले अक्षरों के कारण किस प्रकार पाठभेद बन गए हैं। बहुत से पाठभेद मात्र शब्दान्तर से संबंधित हैं। उनके कारण अर्थान्तर का प्रसंग नहीं बना है। लेकिन अनेक पाठभेद इस प्रकार के भी हो गए है जिनमें अर्थान्तर प्रकट होता है। बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि व्याख्याकार के समक्ष अशुद्ध सूत्रप्रति होने पर उसे ही सही मानकर अशुद्ध पाठ के अनुसार व्याख्या कर देने से गलत अर्थ प्राप्त होने के कारण सम्यक् पाठ का निर्णय और भी जटिल हो जाता है। (६) चूर्णि, टीका आदि के प्रकाशन से पूर्व अवधानतापूर्वक शुद्ध सम्पादन का अभाव : वर्तमान में विशेषत: प्रचलित तथा आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित अनेक चूर्णियां, टीकाएं आदि श्रीसागरानन्दसरिजी द्वारा सम्पादित हैं। प्रकाशन से पूर्व अनेक हस्तलिखित टीकाप्रतियों के आधार से धैर्यपूर्वक सम्पादन किए बिना इनका प्रकाशन हुआ है, ऐसा टीका की हस्तलिखित प्रतियों से मुद्रित प्रति के अन्तर को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है। उदाहरणार्थ - उन्होनें श्रीदशवैकालिकसूत्र के नवम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक की पन्द्रहवीं गाथा (९/४/१५) की टीका में यह पाठ दिया है - किंविशिष्टो मुनिरित्याह - जिनमतनिपुणः आगमे प्रवीणः" । उपर्युक्त टीकापाठ से ऐसा लगता है कि "जिणमयनिउणे" ऐसा सूत्रपाठ होना चाहिए। (किसीकिसी स्वाध्यायमाला में भी यही पाठ है ।) जबकि हारिभद्रीय टीका की प्राचीन हस्तलिखित प्रति में यह पाठ है - 'किंविशिष्टो मुनिरित्याह - जिनवचननिपुणः आगमे प्रवीणः' (हस्तलिखित हारिभद्रीय टीका पत्रांक २५५ अ) इसके अनुसार 'जिणवयनिउणे' यह सूत्रपाठ शुद्ध है। दोनों चूणियों एवं अनेक सूत्रप्रतियों से भी 'जिणवयनिउणे' पाठ की सिद्धि होती है। ऐसे अन्य भी अनेक उदाहरण हैं । मुद्रित वृद्धविवरण एवं वृद्धविवरण की हस्तलिखित प्रतियों (हवृवि १, हवृवि २, हवृवि ३) के फर्क के कुछेक उदाहरणों की सूची प्रस्तुत है - अध्ययन / गाथा | मुद्रित का | मुद्रित वृद्धविवरण | हस्तलिखित पृष्ठ-पंक्ति वृद्धविवरण ७/४३ २६०-४ । अचिअत्तं अचितं ९/३/१४ ३२४-४ | जयणाए रओ जयणापरो १०/४ ३४१-४ पुढवितणकटुं | पुढविदगकटुं० १०/१६ ३४५-१२ अगिद्धिए | अगढिए ३५३-४,७,८ ०पडागा० ०पडागार० चू २/१० ३७४-२ णिउणं सहायं० | णिउणं सहायं० सिलोगो इन्द्रवज्रा चू १/१ १. दशवैकालिकचूर्णि, सम्पादक : श्रीसागरानंदसूरिजी, प्रकाशक - श्रीऋषभदेव केसरीमलजी पेढ़ी, रतलाम, संवत् १९८९ २. हस्तलिखित प्रतियों की संज्ञाओ एवं लेखनकालादि सम्बन्धी विवरण "परिशिष्ट क्रमांक १" में दिया गया है।
SR No.520568
Book TitleAnusandhan 2015 08 SrNo 67
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
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