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जून २०१५
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वाचनाओं की विभिन्नता होने से, पुस्तकों (सूत्रप्रतियों) की अशुद्धि के कारण, सूत्र अतिगम्भीर होने से तथा कहीं-कहीं मतभेद होने से यहाँ ( व्याख्या में भूल होना सम्भव है, अतः विवेकी पुरुष इसमें से (टीका में से) जो सिद्धान्तानुसारी अर्थ हो उसे ही ग्रहण करें, सिद्धान्तविरुद्ध को नहीं।" "आदर्शेषु लिपिप्रमादस्तु सुप्रसिद्ध एव ।
(श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति वाचक श्रीशांतिचंद्र, पत्रांक ३२४ अ ) सूत्रप्रतियों में लिपिप्रमाद का होना तो सुप्रसिद्ध ही है ।"
"इह च प्राय: सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते न च टीकासंवादी एकोप्यादर्शः समुपलब्धः अत एकमादर्शमङ्गीकृत्यास्माभिर्विवरणं क्रियत इति एतदवगम्य सूत्रविसंवाददर्शनाच्चित्तव्यामोहो न विधेय इति । " [ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्रवृत्ति श्रीशीलाङ्काचार्य, पत्रांक ३३६अ ]
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यहाँ प्रायः सूत्रप्रतियों में भिन्न-भिन्न सूत्रपाठ प्राप्त होते हैं, टीका(चूर्णि)संवादी [टीका(चूर्णि) सम्मत सूत्रपाठ वाला ] एक भी आदर्श (सूत्रप्रति) उपलब्ध नहीं हुआ। अतः एक ही सूत्रप्रति को स्वीकार करके हमारे द्वारा टीका रची जा रही है, ऐसा जानकर कहीं सूत्रों में भिन्नता दिखाई दे तो चित्त में व्यामोह नहीं करना चाहिए ।"
प्राचीन लिपि में प्राय: समान दिखने वाले अक्षरों को स्पष्टता से लिखने या समझने की भूल का प्रभाव :
लिपिदोष के अतिरिक्त पूर्व प्रति को देखकर उसके आधार पर नवीन प्रतिलिपि उतारते समय पूर्व लिपिगत अक्षरों को समझने में होने वाली भूल भी बहुधा अपरिचित लिपिकार को भ्रान्त बना देती है। फलस्वरूप अक्षरों आदि में व्यत्यय हो जाता है। इसे समझने के लिए श्रीदशवैकालिकसूत्र के पञ्चम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की ७३ वीं गाथा (३/१/७३) में आगत "अत्थियं तिदुयं बिल्लं, उच्छुखण्डं च सिबलिं " इस पाठ को ले। यहाँ 'अत्थियं' को कोई 'अच्छियं' पढ़ते हैं। प्राचीन लिपि में =च्छ है तथा ब = त्थ है । अनेकशः लिपिकारों ने त्थ को भी च्छ के समान लिख दिया है जिससे निर्णय अत्यन्त दुष्कर हो गया है। यहाँ मुनि श्रीपुण्यविजयजी ने
अनुसन्धान-६७ 'अच्छियं' पाठ स्वीकारा है लेकिन श्रीभगवतीसूत्रगत पाठ 'अस्थिय तेंदुय बोर' [श्रीभगवतीसूत्र शतक २२, वर्ग ३, सूत्र १ (मजैवि, मधु.)] तथा श्रीप्रज्ञापनासूत्रगत पाठ 'अस्थिय तिदु कविट्टे' [ श्रीप्रज्ञापनासूत्र, पद १, सूत्र ५१, गाथा १६ (मजैवि, मधु.)] तथा श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्रगत पाठ 'अस्थिय तेंदुय...' [ श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्र, प्रथम प्रतिपत्ति सूत्र २० (मधु ) १/७२ (ते)] में बिना पाठान्तर के प्राप्त 'अत्थियं' के अनुसार यहाँ भी 'अत्थियं तिंदुयं बिल्लं' पाठ उपयुक्त है ।
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इसी प्रकार प्राचीन लिपि में 'बम' एवं 'ज्झ' की समस्या है। = ब्भ तथा स ज्झ ऐसा लिखा जाता है। अनेक लिपिकार भ एवं ज्झ को एक समान लिखते हैं । इसी कारण से श्रीदशवैकालिकसूत्र के नवम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक की तृतीय गाथा (७/२/३) के पाठ "वुज्झइ से अविणीअप्पा कट्टु सोयगयं जहा" में 'वुब्भइ' पाठ है या 'बुज्झइ' पाठ है इसका निर्णय अत्यन्त कठिन हो गया है। यहाँ श्रीअगस्त्यचूर्णि में 'वुज्झति' पाठ लिया है तथा वृद्धविवरण की हस्तलिखित प्रति में 'वुब्भइ' पाठ माना जा रहा है (मुद्रित वृद्धविवरण में 'वुज्झई' ही है) इसके अतिरिक्त कुछ हस्तलिखित सूत्रप्रतियों में 'वुज्झइ' है तथा कुछ में 'वुब्मइ' है ।
["एवं अविणयबहुलो वुज्झति से अविणीयप्पा"
अगस्त्यचूर्णी, पृष्ठ २१२] ['वुज्झइ से अविणीअप्पा एवं सो विणेओ चंडादिसु वट्टमाणो अविणीअप्पा वुज्झइ, कहं ? जहा नदीसोयमज्झगयं कटुं नदीए सोतेण वुज्झइ, एवं सो संसारसोतेण वुज्झति त्ति ।
- वृद्धविवरण, पत्रांक ३१०]
मुनि श्रीपुण्यविजयजी ने यहां 'वुब्भइ' पाठ माना है । हैम व्याकरण में 'भो दुह - लिह - वह - रुधामुच्चात:' (८-४-२४५) से 'वुब्भ' रूप ही बनाया गया है एवं रिचार्ड पिशल ने भी जर्मन भाषा में लिखे ग्रन्थ (इंग्लिश नाम Grammar of the Prakrit Languages) में 'वुब्भ' को ही व्याकरणसंगत बताया है । इसके बावजूद जहाँ 'वुज्झइ' पाठ ही उचित है ।
इसका कारण यह है कि श्रीसूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के ग्यारहवें