SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ अनुसन्धान-६७ जून - २०१५ १०५ श्रीनन्दीसूत्र में मिथ्याश्रुत के प्रकरण में 'बुद्धवयणं' के बाद 'तेरासियं' पाठ वर्तमान में प्रचलित है एवं आगमोदय समिति के पाठ में भी है। जबकि 'तेरासियं' यह शब्द किसी प्राचीन प्रति में प्राप्त नहीं है। श्रीदशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा (१/१) के प्रथम चरण में 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' यह पाठ वर्तमान में प्रायः सर्वत्र प्रचलित है एवं आगमोदय समिति द्वारा मुद्रित पाठ भी इसी प्रकार का है। जबकि अत्यन्त किसी प्राचीन सूत्रप्रति में 'मुक्किट्ठ' पाठ प्राप्त नहीं है । मुनि श्रीपुण्यविजयजी को तो यह पाठ किसी सूत्रप्रति में नहीं मिला एवं हमें भी विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के पूर्व की किसी सूत्रप्रति में यह पाठ नहीं मिला । प्राचीन प्रतियों में 'मुक्ढुं' यही पाठ एकस्वर से मिलता है। बल्कि अर्वाचीन हस्तलिखित प्रतियों में भी 'मुक्कटुं' पाठ ही 'मुक्किट्ठ' की अपेक्षा बहुत अधिक मिलता है । यहाँ तक कि आचार्य श्रीअमोलक ऋषिजी म.सा. ने भी 'मुक्कट्ठ' पाठ को ही स्वीकार किया है, जिससे ऐसा माना जा सकता है कि तब तक भी 'मुक्कटुं' के उच्चारण की परम्परा रही होगी। अगस्त्यचूणि में भी गाथाप्रतीक के रूप में पहले 'मुक्कट्ठ' पाठ ही दिया है। तदनन्तर गाथा के व्याख्याप्रसंग में मुक्कट्ठ एवं मुक्किटुं दोनों प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार वृद्धविवरण (एक अन्य चूणि) में भी उभयरूप पाठ प्राप्त होते है। इस प्रकार सभी प्राचीनतर सूत्रप्रतियों में एकमात्र 'मुक्कट्ठ' पाठ होने एवं दोनों चूणियों में भी यह पाठ होने पर भी 'आगमोदय समिति' द्वारा 'मुक्किटुं' पाठ के स्वीकार के कारण ही 'मुक्किट्ठ' की विशाल परम्परा चल पड़ी है जबकि यहाँ 'मुक्कट्ठ' पाठ ज्यादा संगत है। 'मुक्कटुं' पाठ की शुद्धता इस बात से विशेष पुष्ट होती है कि श्रीनिशीथचूणि, समवायांगवृत्ति, नंदीचूणि, नंदी-हरिभद्रीयवृत्ति तथा नन्दीमलयगिरिवृत्ति में आए इस गाथांश के उद्धरण में भी 'मुक्कट्ठ' पाठ ही आया ["कहं छिन्नछेदणतो त्ति भण्णति ? उच्यते - जो णयो सुत्तं छिन्नं छेदेण इच्छति, जहा - "धम्मो मंगलमुक्कटुं" इति सिलोगो" - श्रीनन्दीचूर्णि, पृष्ठ ७४] ["यथा धम्मो मंगलमुक्कट्ठ' इत्यादि श्लोकः" - श्रीसमवायांगसूत्र पर अभयदेवकृत वृत्ति पृष्ठ ८२ एवं २४८ (संपा.- मुनि जंबूविजयजी) ।] ["इह जो णओ सुत्तं अछिन्नं छेदेण इच्छइ सो अच्छिन्नच्छेदणयो, जहा - "धम्मो मंगलमुक्कट्ठ" ति सिलोगो" - श्रीनन्दीसूत्र पर हारिभद्रीय वृत्ति सूत्र - १०८ पृष्ठ ८७] [इह यो नाम नयः सूत्रं छेदेन छिन्नमेवाभिप्रेति न द्वितीयेन सूत्रेण सह सम्बन्धयति, यथा - "धम्मो मंगलमुक्कट्ठमिति" - श्रीनन्दीसूत्र पर मलयगिरिवृत्ति, संवत् १९०९ में लिखित हजारीमल बहादुरमल बाठिया के संग्रह (ABL) की हस्तलिखित प्रति, पत्रांक २६०ब] इसके साथ ही कसायपाहुड की जयधवला टीका में आगत इस गाथांश के उद्धरण में भी 'मुक्कटुं' पाठ ही प्राप्त होता है। ["संपहि सुदणाणस्स पदसंखा वुच्चदे । तं जहा एत्थ पमाणपदं, अत्थपदं, मज्झिमपदं, तिविहं पदं होदि । तत्थ पमाणपदं अट्ठक्खरणिफणं, जहा "धम्मो मंगलमुक्कट्ठ" इच्चाइ - कसायपाहुड गाथा १ पर जयधवला टीका, 'पेज्जदोसविहत्ती' नामक प्रथम अर्थाधिकार, अनुच्छेद क्रमांक ७१, भाग-१, पृष्ठ ९०-९१] श्रीदशवैकालिकसूत्र के तृतीय अध्ययन की तृतीय गाथा (३/३) में वर्तमान में 'संबाहणा' एवं 'संपुच्छणा' ये पाठ प्रचलित है एवं आगमोदय समिति के मुद्रित पाठ भी ऐसे ही है। जबकि चणि, वृत्ति एवं किसी भी प्राचीन हस्तलिखित सूत्र-प्रति में ये पाठ इस रूप में नहीं है। वस्तुत: यहाँ 'संबाहण' एवं 'संपुच्छण' पाठ शुद्ध है। श्रीदशवैकालिकसूत्र के पञ्चम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की अड़सठवीं गाथा (५/१/६८) में प्रचलित "तन्निस्सिया जगे" में 'जगे' यह इस रूप में किसी प्राचीन सूत्रप्रति आदि में उपलब्ध नहीं है, किन्तु आगमोदय समिति ['तत्थ पढमसुत्तं पढम-सिलोगो । तत्थ उभयभेदो दरिसिज्जति । "धम्मो मंगलमुक्कट्ठ" एवं सिलोगो पढियव्वो' - श्रीनिशीथचूर्णि, पीठिका भाष्य गाथा २० की चूर्णि (भाग १, पृष्ठ १३)]
SR No.520568
Book TitleAnusandhan 2015 08 SrNo 67
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy