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जून - २०१५
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अनुसन्धान-६७
इतने अधिक प्रचलित हो गए कि इनमें वास्तविक-अवास्तविक का निर्णय अशक्यप्राय हो गया। चूर्णिकारों के समय में तकारान्त एवं व्यञ्जनप्रधान शब्दों की बहुलता रही है, पर उनमें कहीं-कहीं ऐसे शब्द भी आ गए है जिनमें व्यञ्जनविशेष की उपस्थिति का कारण शोध पाना कठिन है यथा - चाति (त्यागी के अर्थ में), सतणाणि (शयनानि के अर्थ में) । त्यागी के अर्थ में श्रीअगस्त्यचूर्णि में प्रयुक्त 'चागि' शब्द तो बोधगम्य है, पर इसी चणि में अन्यत्र प्राप्त 'चाति' में तकार का आगमन किस कारण से हुआ एवं इसी प्रकार 'शयनानि' की जगह 'सतणाणि' में तकार किस कारण से लिया गया, यह व्याख्यायित करना कठिन है। ३. अर्वाचीन सम्पादकों का प्रभाव : ____ मुद्रणयुग आने पर आगमों के सम्पादकों के प्रभाव से भी अनेक पाठभेद प्रचलित हो गए । आगमों के प्रकाशन का प्रथम बृहत् कार्य अजीमगंज (बंगाल) के राय धनपतसिंह बहादुर ने सन् १८७४ में शुरू किया । लेकिन इसमें पदविभाग, विरामचिह्न, पैराग्राफ इत्यादि के बिना प्रायः हस्तलिखित के समान ही आगमप्रकाशन हुआ। इसके पहले प्राप्त जानकारी के अनुसार एकदो विदेशी विद्वानों ने ही कल्पसूत्र एवं श्रीभगवतीसूत्र के कुछ अंश प्रकाशित किए थे । सन् १८७९ से १९१० तक विदेशी सम्पादकों यथा डॉ. हर्मन जेकोबी, होर्नले, शुबिंग आदि ने प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों का सहारा लेकर श्रमपूर्वक श्रीआचारांग, श्रीऔपपातिक, श्रीआवश्यक. श्रीउपासकदशा आदि का सम्पादन किया एवं वे ग्रन्थ प्रकाशित हुए । सन् १९१६ से १९२० के अन्तर्गत आचार्य श्रीअमोलक ऋषिजी म.सा. के हिन्दी अनुवाद सहित बत्तीस आगम हैदराबाद के लाला सुखदेव सहायजी की तरफ से प्रकाशित हुए। सन् १९१५ में प्रारम्भ करके आचार्य श्रीसागरानन्दसूरीश्वरजी द्वारा सम्पादित टीका सहित आगम आगमोदय समिति-सूरत से प्रकाशित होने लगे एवं आगमोदय समिति के माध्यम से अनेक आगमों एवं चूर्णियों, टीकाओं आदि का प्रकाशन हुआ। आगमोदय समिति के प्रकाशनों के पश्चात् भी घासीलालजी म.सा. के माध्यम से बत्तीस आगमों पर कार्य हुआ । पुष्फभिक्खू द्वारा सम्पादित 'सुत्तागमे' प्रकाश में आया, जिन पर आगमोदय समिति के आगमों का अत्यन्त प्रभाव
रहा । ज्ञातव्य है कि 'सुत्तागो' के सूत्रपाठों में 'पृष्फभिक्ख' (मुनि श्री फूलचन्दजी म.सा.) द्वारा पुष्टावलम्बन एवं विशिष्ट प्रमाणों के बिना अप्रामाणिक पाठपरिवर्तन कर दिये जाने के कारण 'श्रमणसंघीय कार्यवाहक समिति' ने 'सुत्तागमे' के प्रकाशन को अप्रामाणिक घोषित किया था । तथा श्री अखिल भारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस की साधारण सभा (लुधियाना, २०-२१ अक्टूम्बर सन् १९५६) में तत्संबंधी प्रस्ताव पारित किया। उसके पश्चात् स्थानकवासी समुदाय में प्रकाशित अधिकांश आगमों का प्रकाशन आगमोदय समिति प्रदत्त पाठों का प्राय: अनुसरण करता रहा है। स्वाध्यायमाला आदि में भी प्राय: उसी का अनुसरण हुआ है । प्रचलित पाठों में उत्पन्न अनेक विकृतियों का जनक 'आगमोदय समिति' का यही अन्धानुकरण रहा है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए अधिक नहीं तो कुछ उदाहरण प्रस्तुत करना जरूरी जान पड़ता है।
श्रीनन्दीसूत्र के प्रारम्भ में समागत गाथाओं में से 'सुमुणियणिच्चाणिच्च'... (गाथा ४६) का वर्तमान प्रचलित स्वरूप यह है -
सुमुणियणिच्चाणिच्चं सुमुणियसुत्तत्थधारयं वंदे ।
सब्भावुब्भावणया तत्थं लोहिच्चणामाणं ॥
यहाँ 'वंदे' से लेकर 'णामाणं' तक का पाठ न चूणि एवं टीका में व्याख्यात है न ही किसी भी प्राचीन सूत्रप्रति में उपलब्ध है । परन्तु 'आगमोदय समिति' ने इस पाठ को स्थान दिया है एवं वह पाठ प्रचुर प्रचलित हो गया। इसके स्थान पर चूर्णि, टीका एवं प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के अनुसार जो पाठ होना चाहिए वह इस प्रकार है -
सुमुणियणिच्चाणिच्चं सुमुणियसुत्तत्थधारयं णिच्चं । वंदे हं लोहिच्चं, सब्भावुब्भावणातच्चं ॥
आचार्य श्रीअमोलक ऋषिजी द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र में भी 'आगमोदय समिति' वाला पाठ नहीं है, बल्कि उपर्युक्त शुद्ध पाठ ही है। (केवल चौथे चरण में 'तच्चं' के स्थान पर 'णिच्वं' छपा है) १. नन्दिसुत्तं अणुओगद्दाराई च, सं. मुनि पुण्यविजयजी, प्रस्तावना पृ. ३-४ २. आचार्य श्रीगणेशीलालजी म.सा. का जीवनचरित्र, पृष्ठ ३१७-३१९ (द्वितीय संस्करण)