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जून - २०१५
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समीक्षा का प्रयत्न क्या तीर्थकर भगवतों एवं आगमकार महापुरुषों की घोर आशातना का भयंकर दुस्साहस नहीं है ?" यह प्रश्न आगमों के प्रति परम आस्थाशील जिनशासनभक्त का होना बहुत सहज है एवं होना भी चाहिए । किन्तु जैसे हमारी एक नज़र एक ही आगम की चूर्णियों, टीकाओं, विभिन्न हस्तलिखित सूत्रप्रतियों एवं अनेक मुद्रित संस्करणों पर जाएगी एवं हमें किसी में कुछ, किसी में कुछ अन्य एवं किसी में कुछ और अन्य ही पाठ दृष्टिगोचर होगा तो हमारे प्रश्न की दिशा मुड़ जायेगी एवं हम सोचने लगेंगे कि क्या इस बात का निर्णय नहीं होना चाहिए कि कौन-सा पाठ वास्तविक है व कौन-सा नहीं ? यही प्रश्न आगमपाठ के निर्णय की दिशा में प्रेरित करता है। पाठभेद के कारण : १. वाचनाभेद २. भाषागत परिवर्तन ३. अर्वाचीन सम्पादकों का प्रभाव ४. लिपिदोष का प्रभाव ५. प्राचीन लिपि में प्रायः समान दिखने वाले अक्षरों को स्पष्टता से लिखने
या समझने की भूल ६. चूणि, टीका आदि के प्रकाशन से पूर्व उनके अवधानता पूर्वक शुद्ध
सम्पादन का अभाव ७. आगमों के लेखनकाल में प्रयुक्त संक्षिप्तीकरण पद्धति का प्रभाव ८. अध्यापनकाल में विषय को समझाने हेतु सूत्रप्रति पर अन्य गाथा आदि
का लेखन. १. वाचनाभेद :
श्रीनन्दीसूत्र में कहा है - "इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं ण कयाइ णाऽऽसी ण कयाइ ण भवति ण कयाइ ण भविस्सति, भुवि च भवति च भविस्सति य, धुवे णिअए सासते अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे" अर्थात् यह द्वादशाङ्गी नित्य एवं शाश्वत है। यह कथन अर्थ की अपेक्षा से है। शब्दात्मक परिवर्तन विभिन्न तीर्थङ्कर भगवन्तों के समय में रहे हैं यह आगमों में स्पष्टतः प्रमाणित है।
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अनुसन्धान-६७ प्राप्त इतिहास के अनुसार भगवान के निर्वाण के लगभग एक सौ साठ (१६०) वर्ष पश्चात् द्वादशवर्षीय दुष्काल के समाप्त हो जाने पर पाटलिपुत्र में आगमसूत्रों की वाचना को व्यवस्थित करने का प्रथम प्रसंग बना ।' उसके कुछ शताब्दियों बाद पुनः द्वादशवर्षीय दुष्काल पड़ा जिसके पश्चात् वीरनिर्वाण संवत् आठ सौ सत्ताईस (८२७) से संवत् आठ सौ चालीस (८४०) के बीच मथुरा में श्रीस्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में तथा वलभी में श्रीनागार्जुनाचार्य के नेतृत्व में वाचनाएं हुई। द्वादशवर्षीय दुष्काल में भिक्षाप्राप्ति हेतु मुनियों के यत्र-तत्र बिखर जाने के कारण व्यवस्थित वाचना, पर्यटना आदि के अभाव में सूत्रविस्मरण आदि कारणों से उन वाचनाओं के माध्यम से सूत्रों को पुनः व्यवस्थित किया गया एवं दोनों आचार्यों का परस्पर मिलन न हो पाने के कारण क्वचित् पाठभेद हो गए। तत्पश्चात् वीरनिर्वाण संवत् नौ सौ अस्सी (९८०) में माथुर संघ के युगप्रधान श्रीदेवधिगणि क्षमाश्रमण ने वलभीपुर में संघ को एकत्र करके आगमों का लेखन करवाया। २. भाषागत परिवर्तन :
संभवत: क्षेत्रीय प्रभाव के कारण विभिन्न क्षेत्रों के मुनियों द्वारा किए जाने वाले आगमों के उच्चारण में व्यञ्जनप्रधान (होति, गच्छति, अतीते) एवं लोपप्रधान (होइ, गच्छइ, अईए) इत्यादि अन्तर आने लगा । साथ ही कहीं 'जधा, तधा, गाधा', तथा कहीं 'जहा, तहा, गाहा' इत्यादि रूप व्यञ्जनान्तर भी होने लगे । इसके अतिरिक्त प्राकृत व्याकरणानुसार होने वाले वैकल्पिक रूप यथा - करेंति-करंति, देंतियं-दितियं, निक्खित्तं-णिक्खितं, पुच्छेज्जापुच्छिज्जा, दोह-दुग्हं, उदिया-उद्विआ, न-ण, च-य, ओल्लं-उल्लं इत्यादि विभिन्न शाब्दिक अन्तर (किन्तु समान अर्थवाले) उच्चारण एवं लेखन में १, २, ३, ४ = सुयगडंगसुत्तं (सं. मुनि श्री जम्बूविजयजी) प्रस्तावना, पृ. ३० १. (क) आवश्यक चूर्णि, भाग २, पृष्ठ १८७
(ख) परिशिष्ट पर्व, नवम सर्ग। २. (क) नन्दीचूर्णि (ख) कहावली (भद्रेश्वरसूरि) ३. (क) कहावली (भद्रेश्वरसूरि) (ख) ज्योतिषकरण्डक-टीका, पृष्ठ ४१ ४. (क) समाचारीशतक (उपाध्याय समयसुंदर)
(ख) कल्पसूत्रसुबोधिका षष्ठ व्याख्यान (पत्र २१७ - हर्षपुष्पामृतग्रंथ माला)