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________________ जून - २०१५ १०० अनुसन्धान-६७ भगवान महावीर द्वारा तीर्थ-स्थापना के अनन्तर उनकी विद्यमानता में एवं उनके निर्वाण के पश्चात् भी सैंकड़ो वर्षों तक श्रुतग्रहण की जो विधि प्रचलित थी उसमें अनेक कारणों से परिवर्तन हुआ । फलस्वरूप वर्तमान में श्रुतग्रहण का कुछ भिन्न रूप परिलक्षित होता है। प्राप्त ज्ञात इतिहास के अनुसार भगवान के निर्वाण के लगभग ९८० वर्षों बाद आगमों का लेखनकार्य हुआ। उससे पूर्व तक आगम कण्ठस्थ ही थे एवं गणधर भगवन्तों से प्रारम्भ करके तब तक के आचार्योपाध्याय बिना किसी लिखित आगम के सहारे अपने श्रीमुख से ही सूत्रार्थ की वाचना प्रदान करते थे एवं अध्येता शिष्यवर्ग भी श्रवण-मात्रपूर्वक सूत्रार्थ को धारणामति में स्थापित करके दीर्घकाल तक अवस्थित रखते एवं यथासमय अन्यों को वाचना प्रदान करते थे। आगमों के लेखन के पश्चात् शनैः-शनैः वाचनापद्धति में परिवर्तन आने लगा । कण्ठस्थ ज्ञान कम होता गया एवं लिखित का आश्रय बढ़ता गया । 'स्मरणशक्ति की मन्दता एवं लिखित पर निर्भरता' - ये दोनों एकदूसरे को पोषण देती हुई निरन्तर बढ़ती गई । परिणामस्वरूप लिखित सामग्री का विस्तार होता गया एवं मुद्रणयुग के आने पर विपुल मात्रा में आगम एवं अन्य साहित्य का प्रकाशन होकर यत्र-तत्र अनेकत्र उनकी उपलब्धि होने लगी। यद्यपि मौखिक वाचनाकाल में भी स्मृतिरूप धारणाशक्ति की अदृढ़ता आदि से सूत्रपाठों में क्वचित् किञ्चित् अन्तर आना असंभाव्य नहीं था । तथापि आगमलेखन का कार्य प्रारम्भ होने के पश्चात् लेखक की सहजसंभव स्खलनाओं एवं आगममुद्रण का युग आ जाने पर मुद्रणदोष की बहुलताओं आदि कारणों से तो यह अन्तर बढ़ता हुआ ही चला गया । फलस्वरूप किस पुस्तक का पाठ सही एवं किसका गलत, यह निर्णय करना कठिन हो गया एवं विद्यार्थियों, अध्येताओं के समक्ष एक असमंजस की स्थिति बनने लगी । अस्तु । आगम त्रिविध प्रशप्त है - सूत्रागम, अर्थागम एवं तदुभयागम । सूत्रशुद्धि से ही अर्थशुद्धि संभव है। अत: तदर्थ भी सूत्रशुद्धि अपेक्षित है। अर्थागम के साथ अनिवार्यतः सम्बद्ध मूलपाठनिर्णय की भावना उन-उन प्रसंगों पर विशेष बलवती बनती गई, जब साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकाओं द्वारा यह प्रश्न प्रस्तुत होता कि अलग-अलग पुस्तकों के सूत्रपाठों में भिन्नता है, किसे सही माना जाए एवं किसे कण्ठस्थ किया जाए ? सम्यक् अन्वेषण के बिना किसी को सही, किसी को गलत कहना उपयुक्त नहीं बन पाता । धीरेधीरे इस बात की आवश्यकता प्रबलता से अनुभूत होने लगी कि उपलब्ध होने वाले आगम संबंधी अनेक पाठभेदों में से सही पाठों का निर्णय करके प्रत्येक आगम का एक सुनिश्चित स्वरूप निर्धारित कर लिया जाय । धारणा की एकरूपता से अनेक प्रश्न स्वतः समाहित हो सकेगें । यथासमय कार्य का आरम्भ हुआ। कुछ समय पूर्व श्रीदशवैकालिक सूत्र सम्बन्धी पाठों का सप्रमाण निर्णय परिपूर्णता को प्राप्त हुआ । कार्य के प्रारम्भ से लेकर अद्यावधि प्रगति के मध्य समागत आरोहअवरोहों के विवरण की अपेक्षाओं को लेख्य लाघवार्थ गौण करके, प्रस्तोतव्य बिन्दुशः प्रस्तुत है। १. आगमपाठनिर्णय की आगमिकता २. पाठभेद के कारण ३. आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी की संशोधनपद्धति का सारसंक्षेप. ४. मुनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा स्वीकृत पाठों को यथावत् स्वीकार न करने के कारण पाठनिर्णय हेतु हमारे द्वारा स्वीकृत पाठनिर्णयपद्धति स्वीकृत पाठनिर्णयपद्धति का श्रीदशवैकालिक सूत्र के सन्दर्भ में सोदाहरण विचार ७. उपसंहार ८. पाठनिर्णय में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियों का विवरण (परिशिष्ट-१) पाठनिर्णय में प्रयुक्त सन्दर्भ ग्रन्थ सूची (परिशिष्ट-२) १०. प्रस्तुत प्रारूप में प्रयुक्त संदर्भ संबंधी संकेत सूची एवं कुछ ज्ञानतव्य (परिशिष्ट-३) आगमपाठनिर्णय की आगमिकता : "द्वादशाङ्गी गणधरकृत एवं अन्यान्य आगम पूर्वधरकृत है । उनकी
SR No.520568
Book TitleAnusandhan 2015 08 SrNo 67
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size1 MB
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