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फेब्रुआरी - २०१५
ता सेवगजणकप्परुक्ख! तक्खणि मह वंछिउ देहि सुहं सव्वाहिवाहिरिउवग्ग निवारिउ । तउं हवे णं लज्ज पाव दायगु किर पामइ जं अप्पत्तमणत्थिअत्थु जायगु चिर विलवइ ॥२३॥ अविहलपत्थण! विन्नविउ इअ भत्तिरसागइ सेवगजणपच्चक्ख! पास! संतु? तुहं जइ । नमिउ बल दुविह जिणिउ फुरिआमलकेवलु जह त(तु)ह तुल्ल भवामि सिग्घ तह कर मइ निम्मल ॥२४॥ इअ नीलुप्पल-नीलकायकर[पसर?] निरंतर फणिपतिफणमणिकिरणभार[अ]च्छरिअदिअंतर । जे तई नाह थुणंति पास जीराउलि संठिउ आसिव सुहसिरि ते भजंति अचिरेणुक्कंठिउ । तुह थ(थु)इकर नर सुसिरि देवसुंदर सुह भंजिउ सिवलच्छीमवि भजहिं पास अचिरेणुक्कंठिउ ॥२५॥
.. इति श्रीजीरापल्लीपार्श्वनाथस्तवः ॥
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(५) वैराग्यप्रेरणम्
___ नमो जिनागमाय ॥ पणमवि गुणसायर भुवणदिवायर जिण चउव(वी)स वि इक्कमणि । . अप्पुं पडिबोहइ मोह निरोहइ काइ भवभेदणवसण ॥१॥ रे जीव! निसुणि चंचलसहाव, मिल्हेविणु सयल वि बज्झभाव । नवभेदिय परिग्गहु विविहजालु, संसारि अत्थि इंदिआलु ॥२॥ पयि पुत्त मित्त घरघरणि जाय, इहलोइय सव्वि वि सुहसहाय । न बिइ अत्थि कोइ तुह सरणु मुक्ख!, इक्कुन्ह सहिसि तिरिनरयदुक्ख ॥३॥ . अच्छउ ता दूरिण पवरगेहु, नियदेहु वि न हु अप्पणउं एहु । इणि कारणि मन करि मूढ! पाव(बु), ससि निवडिम होसिइ पच्छयावु(?) ॥४॥