SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ अनुसन्धान-६६ को दे दिया जाता है वह नामनिक्षेप है । नामनिक्षेप में न तो शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ का विचार किया जाता है, न उसके लोकप्रचलित अर्थ का विचार किया जाता है, और न उस नाम के अनुरूप गुणों का ही विचार किया जाता है । अपितु मात्र किसी व्यक्ति या वस्तु को संकेतित करने के लिए उसका एक नाम रख दिया जाता है। उदाहरण के रूप में कुरूप व्यक्ति का नाम सुन्दरलाल रख दिया जाता है । नाम देते समय अन्य अर्थों में प्रचलित शब्दों, जैसे सरस्वती, नारायण, विष्णु, इन्द्र, रवि आदि अथवा अन्य अर्थो में अप्रचलित शब्दों जैसे डित्थ, रिंकू, पिंकू, मोनु, टोनु आदि से किसी व्यक्ति का नामकरण कर देते हैं और उस शब्द को सुनकर उस व्यक्ति या वस्तु में संकेत ग्रहण होता है । नाम किसी वस्तु या व्यक्ति को दिया गया वह शब्द संकेत है - जिसका अपने प्रचलित अर्थ, व्युत्पत्तिपरक अर्थ और गणनिष्पन्न अर्थ से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। यह स्मरण रखना चाहिए कि नामनिक्षेप में कोई भी शब्द पर्यायवाची नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसमें एक शब्द से एक ही अर्थ का ग्रहण होता है । .... स्थापनानिक्षेप - किसी वस्तु की प्रतिकृति, मूर्ति या चित्र में उस मूलभूत वस्तु का आरोपण कर उसे उस नाम से अभिहित करना स्थापनानिक्षेप है । जैसे जिन-प्रतिमा को जिन, बुद्ध-प्रतिमा को बुद्ध और कृष्ण की प्रतिमा को कृष्ण कहना । नाटक के पात्र, प्रतिकृतिया, मूर्तियाँ, चित्र - ये सब स्थापनानिक्षेप के उदाहरण है। जैन आचार्यों ने इस स्थापनानिक्षेप के दो प्रकार माने हैं - १. तदाकार स्थापनानिक्षेप और २. अतदाकार स्थापनानिक्षेप । वस्तु की आकृति के अनुरूप आकृति में उस मूल वस्तु का आरोपण करना यह तदाकार स्थापनानिक्षेप है । उदाहरण के रूप में गाय की आकृति के खिलौने को गाय कहना । जो वस्तु अपनी मूलभूत वस्तु की प्रतिकृति तो नहीं है किन्तु उसमें उसका आरोपण कर उसे जब उस नाम से पुकारा जाता है तो वह अतदाकार स्थापनानिक्षेप है । जैसे हम किसी अनगढ़ प्रस्तरखण्ड को किसी देवता का प्रतीक मानकर अथवा शतरंज की मोहरों को राजा, वजीर आदि के रूप में परिकल्पना कर उन्हें उस नाम से पुकारते हैं ।
SR No.520567
Book TitleAnusandhan 2015 03 SrNo 66
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages182
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy