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फेब्रुआरी - २०१५
जैन दर्शन का निक्षेपसिद्धान्त
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नाम २. स्थापना ३. द्रव्य और ४. भाव ।
प्रो. सागरमल जैन
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जैन दर्शन में शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण करने के लिए एक प्रमुख सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है – उसे निक्षेप का सिद्धान्त कहते है निक्षेप के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि जिससे प्रकरण (सन्दर्भ) आदि के अनुसार अप्रतिपत्ति आदि का निराकरण होकर शब्द के वाच्यार्थ का यथास्थान विनियोग होता है, ऐसे रचनाविशेष को निक्षेप कहते हैं । लघीयस्त्रय में भी निक्षेप की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि निक्षेप के द्वारा अप्रस्तुत अर्थ का निषेध और प्रस्तुत अर्थ का निरूपण होता है । वस्तुतः शब्द का प्रयोग वक्ता ने किस अर्थ में किया है इसका निर्धारण करना ही निक्षेप का कार्य है । हम 'राजा' नामधारी व्यक्ति, नाटक में राजा का अभिनय करने वाले व्यक्ति, भूतपूर्व शासक और वर्तमान में राज्य के स्वामी सभी को 'राजा' कहते हैं । इसी प्रकार गाय नामक प्राणी को भी गाय कहते हैं और उसकी आकृति के बने हुए खिलौने को भी गाय कहते है । अतः किस प्रसङ्ग में शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है इसका निर्धारण करना आवश्यक है । निक्षेप हमें इस अर्थनिर्धारण का प्रक्रिया को समझाता है । पं. सुखलालजी संघवी अपने तत्त्वार्थसूत्र के विवचन में लिखते हैं कि "समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है । भाषा शब्दों से बनती है। एक ही शब्द प्रयोजन या प्रसङ्ग के अनुसार अनेक अर्थो में प्रयुक्त होता है । प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ 'मिलते हैं। वे ही चार अर्थ उस शब्द के अर्थ - सामान्य के चार विभाग हैं। ये विभाग ही निक्षेप या न्यास कहलाते हैं । इनको जान लेने से वक्ता का तात्पर्य समझने में सरलता होती है । "
जैन आचार्यों ने चार प्रकार के निक्षेपों का उल्लेख किया है।
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१.
नामनिक्षेप - व्युत्पत्तिसिद्ध एवं प्रकृत अर्थ की अपेक्षा न रखने वाला जो अर्थ माता-पिता या अन्य व्यक्तियों के द्वारा किसी व्यक्ति या वस्तु