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फेब्रुआरी - २०१५ आचारदर्शन के क्षेत्र में व्यवहारनय और निश्चयनय का अन्तर :
जैन परम्परा में व्यवहार और निश्चय नामक दो नयों या दृष्टियों का प्रतिपादन किया जाता है । वे तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन - दोनों क्षेत्रों पर लागू होती हैं, फिर भी आचारदर्शन और तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का प्रतिपादन भिन्न-भिन्न अर्थो में हुआ है । पं. सुखलालजी इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जैन परम्परा में जो निश्चय और व्यवहार रूप से दो दृष्टियाँ मानी गई हैं, वे तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों क्षेत्रों में लागू की गई हैं । सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैन-दर्शन में भी तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों का समावेश है । निश्चयनय और व्यवहारनय का प्रयोग तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों में होता है, लेकिन सामान्यतः शास्त्राभ्यासी इस अन्तर को जान नहीं पाता । तात्त्विक निश्चयदृष्टि और आचारविषयक निश्चयदृष्टि - दोनों एक नहीं है । यहा बात उभयविषयक व्यवहारदृष्टि की भी है । तात्त्विक निश्चय दृष्टि शुद्ध निश्चय दृष्टि है, और आचारविषयक निश्चय दृष्टि अशुद्ध निश्चयनय है । इसी प्रकार तात्त्विक व्यवहार दृष्टि भी आचार सम्बन्धी व्यवहार दृष्टि से भिन्न है । यह अन्तर ध्यान में रखना आवश्यक है। द्रव्यार्थिक और पर्यायर्थिक नय : ... जैन दर्शन के अनुसार सत्ता अपने आप में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य
युक्त है । उसका ध्रौव्य (स्थायी) पक्ष अपरिवर्तनशील है और उसका उत्पाद-व्यय का पक्ष परिवर्तनशील है । सत्ता के अपरिवर्तनशील पक्ष को द्रव्याथिक नय और परिवर्तनशील पक्ष को पर्यायाथिक नय कहा जाता है। पाश्चात्य दर्शनों में सत्ता के उस अपरिवर्तनशील पक्ष को Being और परिवर्तनशील को Becoming भी कहा गया है। सत्ता का वह पक्ष जो.तीनों कालों में एक रूप रहता है, जिसे द्रव्य भी कहते है, उसका बोध द्रव्यार्थिक नय से होता है । और सत्ता का वह पक्ष जो परिवर्तित होता रहता है, उसे पर्याय कहते है, उसका कथन पर्यायार्थिक नय ही है । ज्ञानमीमांसा की दृष्टि
से यह परिवर्तनशील पक्ष भी दो रूपों में काम करता है, जिन्हें स्वभावपर्याय · और विभागपर्याय के रूप में जाना जाता है । जिसमें स्वभावपर्यायवस्था को