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__ अनुसन्धान-६६
प्राप्त करना ही उसका नैतिक आदर्श है । स्वभाव पर्याय तत्त्व के निजगुणों के कारण होती है, एवं अन्य तत्त्वों से निरपेक्ष होती है, इसके विपरीत विभाग पर्याय अन्य तत्त्व से सापेक्ष विभाव पर्याय होती है । आत्मा में ज्ञाता द्रष्टा भाव या ज्ञाता द्रष्टा की अवस्था स्वभाव पर्याय रूप होती है । क्रोधादिभाव विभाव पर्यायरूप होते है । परिवर्तनशील स्वभाव एवं विभाव पर्यायों का कथन व्यवहार नय होता है । जबकि सत्तारूप आत्मा के ज्ञाता द्रष्टा नामक गुण का कथन निश्चय नय से होता है । नैगम आदि सप्तनय :
यह वर्गीकरण अपेक्षाकृत एक परवर्ती घटक है । तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान्य पाठ में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्दनय ऐसे पाँच भेद किये गये हैं । ये पाँचों भेद दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम में भी उल्लेखित है । तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान्य पाठ में उसके पश्चात् नैगमनय के दो भेद और शब्दनय के दो भेद भी किये गये है । परवर्तीकाल में शब्दनय के इन दो भेदों को मूल-पाठ में समाहित करके सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में नयों के नैगम आदि सप्त नयों की चर्चा भी की गई है। दिगम्बर परम्परा इस सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ को आधार मानकर इन सात नयों की ही चर्चा करती है। वर्तमान में तो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में इन सप्तनयों की चर्चा ही मुख्य रूप से मिलती है । इन सात नयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र इन चार नयों को अर्थनय अर्थात् वस्तुस्वरूप का विवेचन करने वाले और शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीन नयों को शब्दनय अर्थात् वाच्य के अर्थ का विश्लेषण करने वाले कहा गया है। अर्थनय का सम्बन्ध वाच्य-विषय (वस्तु) से होता है । अतः ये नय अपने वाच्य विषय की चर्चा सामान्य और विशेष इन पक्षों के आधार पर करते है। जबकि शब्दनय का सम्बन्ध वाच्यार्थ (Meaning) से होता है । आगे हम इन नैगम आदि सप्तनयों की संक्षेप में चर्चा करेंगे ।
नैगमनय - इन सप्तनयों में सर्वप्रथम नैगमनय आता है। नैगमनय मात्र वक्ता के संकल्प को ग्रहण करता है। नैगमनय की दृष्टि से किसी कथन के अर्थ का निश्चय उस संकल्प अथवा साध्य के आधार पर किया जाता