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... अनुसन्धान-६६ की भिन्नता हो, लेकिन उनके विचार इन्हीं दो दृष्टिकोणों की ओर संकेत करते हैं।
यहाँ यह जान लेना चाहिए कि जहाँ तक व्यवहार का प्रश्न है, उसके ज्ञान के साधन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि हैं, और ये तीनों सीमित और सापेक्ष हैं । इसलिए समस्त व्यवहारिक ज्ञान सापेक्ष होता है । जैन दार्शनिकों का कथन है कि एक भी कथन और उसका अर्थ ऐसा नहीं है जो नयशून्य हो, सारा ज्ञान दृष्टिकोणों पर आधारित है, यही दृष्टिकोण मूलतः निश्चयनय और व्यवहारनय कहे जाते हैं । तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयनय और व्यवहारनय का अर्थ :
___तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि सत् के उस स्वरूप का प्रतिपादन करती है, जो सत् की त्रिकालाबाधित स्वभावदशा और स्वलक्षण है, जो पर्याय या परिवर्तनों में भी सत्ता के सार के रूप में बना रहता है । निश्चयदृष्टि अभेदगामी सत्ता के शुद्धस्वरूप या स्वभावदशा की सूचक है और उसके परनिरपेक्ष स्वरूप की व्याख्या करती है। जबकि व्यवहारनय प्रतीति को आधार बनाती है, अतः वह वस्तु के पर-सापेक्ष स्वरूप का विवेचन करता है । निश्चयनय वस्तु या आत्मा के शुद्ध स्वरूप या स्वभाव लक्षण का निरूपण करता है जो पर से निरपेक्ष होता है । जबकि व्यवहारनय पर-सापेक्ष प्रतीति रूप वस्तुस्वरूप को बताता है । आत्मा कर्म-निरपेक्ष शुद्ध, बुद्ध, नित्य, मुक्त है - यह निश्चयनय का कथन है, जबकि व्यवहारनय कहता है कि संसारदशा में आत्मा कर्ममूल से लिप्त है, राग-द्वेष एवं काषायिक भावों से युक्त है। पानी स्व-स्वरूपतः शुद्ध है यह निश्चयनय है । पानी में कचरा है, मिट्टी है वह गन्दा है यह व्यवहारनय है ।
तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि सत्ता के उस पक्ष का प्रतिपादन करती है, जिस रूप में वह प्रतीत होती है । व्यवहारदृष्टि भेदगामी है और सत् के आगन्तुक लक्षणों या विभावदशा की सूचक है । सत् के परिवर्तनशील पक्ष का प्रस्तुतीकरण व्यवहारनय का विषय है । व्यवहारनय देश और काल सापेक्ष है । व्यवहारदृष्टि के अनुसार आत्मा जन्म भी लेती है और मरती भी है, वह बन्धन में भी आती है और मुक्त भी होती है ।