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फेब्रुआरी - २०१५
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पकड़ पाते हैं, क्योंकि बुद्धि भी भाषा पर आधारित है और भाषा का शब्दभण्डार अतिसीमित है । इसी प्रकार अपरोक्षानुभूति भी या आत्मिक अनुभूति भाषा और बुद्धि से निरपेक्ष होती है। जिसे अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा कहा जाता है । निश्चयनय अपरोक्षानुभूति पर और व्यवहारनय इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक ज्ञान पर निर्भर करता है। जिस प्रकार व्यवहारनय भी इन्द्रियानुभूति
और बौद्धिक विमर्श दोनों की अपेक्षा रखता है। जिस प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान और उसकी अभिव्यक्ति के इन्द्रियानुभूतिजन्य ज्ञान, बौद्धिकज्ञान और आत्मिकज्ञान ऐसे ज्ञान के तीन विभाग भी किये गये हैं, ठीक इसी प्रकार बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद में भी परिकल्पित, परतन्त्र और परिनिष्पन्न ऐसे ज्ञान के तीन भेद किये गये हैं । बौद्ध दर्शन का शून्यवाद भी इसे मिथ्या संवृति, तथ्य संवृति और परमार्थ ऐसे तीन रूपों में व्यक्त करता है। आचार्य शङ्कर ने भी इन्हें ही प्रतिभासिक सत्य, व्यवहारिक सत्य और पारमार्थिक सत्य ऐसे तीन विभागों में बाटा है। इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक ज्ञान व्यवहार पक्ष को प्रधानता देते है, अतः इनको मिला देने पर दो विधाएँ ही शेष रहती है - व्यवहार (व्यवहारनय) और परमार्थ (निश्चयनय) । पाश्चात्य-परम्परा में ज्ञान की ही विधाएँ - निश्चयनय और व्यवहारनय
न केवल भारतीय दर्शनों में, वरन् पाश्चात्य दर्शनों में भी प्रमुख रूप से व्यवहार और परमार्थ के दृष्टिकोण स्वीकृत रहे हैं । डो. चन्द्रधर शर्मा के अनुसार भी पश्चिमी दर्शनों में भी व्यवहार और परमार्थ दृष्टिकोणों का यह अन्तर सदैव ही माना जाता रहा है। विश्व के सभी महान दार्शनिकों ने इसे किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है । हेराक्लिटस के Kato और Ano, पाररमेनीडीज के मत (Opinion) और सत्य (Truth), सुकरात के मत में रूप और आकार (Word and Form), प्लेटो के दर्शन में संवेदन (Sense)
और प्रत्यय (Idea), अरस्तू के पदार्थ (Matter) और चालक (Mover), स्पिनोजा के द्रव्य (Substance) और पर्याय (Modes), कांट के प्रपंच - (Phenomenal) और तत्त्व, हेगल के विपर्यय और निरपेक्ष तथा ड्रडले के आभास (Appearance) और सत् (Reality) किसी न किसी रूप में उसी व्यवहार और परमार्थ की धारणा को स्पष्ट करते है । भले ही इनमें नामों