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ऑगस्ट २०११
छे, त्यां ‘पडसुधीनी' एम भेगुं वांचवं जोइए. पृ. ५७ (प्रथम पंक्ति) - 'तुरत गलई ।' अहीं वाक्य पूरुं थतुं नथी. 'तुरत गलइ उत्तरई' (तरत गळे ऊतरे) एवं वाक्य छे.
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मुनिश्री त्रैलोक्यमण्डनविजयजीनी अभ्यासनोंधो अभ्यासपूर्ण छे. श्री नान्दी जेवा विद्वाने हेमचन्द्राचार्यनी कृति - 'काव्यानुशासन' मां अपूर्णता होवानो दावो कर्यो छे, परन्तु वस्तुतः तेवुं नथी आ वात मुनिश्रीए पर्याप्त चर्चाविश्लेषण करीने स्पष्ट कर्तुं छे. मुनिश्रीनो आ प्रयास तेमना खंतीला परिशीलननी नीपज छे. एवी ज रीते, सन्मतितर्कनी एक गाथाना तात्पर्य विशे तेमणे करेली विचारणा तेनी गम्भीरता थकी उत्कृष्ट कक्षानी बनी छे.
श्री मणिभाई प्रजापतिनो सूचिपत्रविषयक अभ्यासलेख हस्तलिखित ग्रन्थसंग्रहोना सूचिपत्रोना इतिहास, पद्धति अने आवश्यकता विशे सुन्दर माहिती पूरी पाडी जाय छे. आजे प्रकाशित थतां सूचिपत्रो अंगे श्री प्रजापति नोंधे छे: "आ सूचिपत्रो अने १९४७ पूर्वेना सूचिपत्रो वच्चे मुख्य तफावत ए जोवा मळे छे के केटलाक अपवादो बाद करतां विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनानो अभाव तथा महत्त्वनी हस्तप्रतो के अप्रकाशित कृतिओ विशे क्वचित् ज उल्लेखो जोवा मळे छे.'' आ विधान भारतना बृहद् विद्याजगतने जेटलुं लागू पडे छे, एटलुं ज जैन वर्तुळाने पण लागू पडे छे. अभ्यास अने संशोधन बन्ने विषयोमां छीछरापणुं आव्युं छे. संशोधन पूर्वे संलग्न विषयोनो अभ्यास जोईए अने अभ्यास पछी वर्षो सुधी परिशीलन करवुं पडे. संशोधन- सम्पादननी एक मान्य रीत अने परिपाटी होय छे जेनी सूझ- समज प्रशिष्ट सम्पादकोना सम्पादित ग्रन्थोना परिशीलनथी अने एवा सम्पादकोना हाथ नीचे काम करवाथी केळवाय छे. आजना संशोधक - सम्पादको पासे एटली धीरज नथी. आपणे इच्छीए के श्रमणवर्गमां आ शिस्त आवे अने विद्या प्रत्ये समर्पितता प्रगटे.
जैन देरासर
नानी खाखर- ३७०४३५ जि. कच्छ, गुजरात