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सप्टेम्बर २०१०
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जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यं वा गतिस्थितिक्रियाविष्टम् ।" (पृ. ३३७) (पृ. ३३८ पर निर्वर्तको... श्लोकमां निर्वर्तक = उत्पादक स्पष्ट छे.) जो उत्पत्तिवाळी गतिमां ज धर्मने कारण गणवामां आवे तो ज्योतिष्क विमानोनी गति पण अनादिअनन्त होवाथी त्यां पण धर्मनो उपकार न गणाय, अने आ वात तो इष्ट नथी.
___ माटे, वर्तना अनादि-अनन्त होवाथी कंइ अना उपकारक कालनी कारणता मटी नथी जती. वळी, वर्तनानो प्रवाह अनादि-अनन्त छे, वर्तना स्वयं तो उत्पत्ति-विनाशयुक्त छे.
धर्मास्तिकायनी अवगाहना पण अनादि-अनन्त छे, छतां पण तेमां आकाशनो उपकार स्वीकृत छे ज. - "अवगाहिनां धर्मादीनामाकाशस्याऽवगाह उपकारः ।" (पृ. ३३९)
★ (पृष्ठ ११६ पर) कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य दिगम्बर मतने स्वीकारे छे, ते वातनी पुष्टिमां जे श्लोको आपवामां आव्या छे, ते श्लोकोनो खरेखर कयो अर्थ छे ते उपा. श्रीयशोविजयजीओ द्रव्यगुणपर्यायनो रास, ढाळ१०, गाथा-१९ना टबामां देखाडेलुं छे. -
"उपचार प्रकार ज देखाडई छई - 'षडेव द्रव्याणि' ओ संख्या पूरणनई अर्थइं जिम पर्यायरूप कालनइं विषई द्रव्यपणानो उपचार भगवत्यादिकनई विषई करीइं छीइं, तिम सूत्रइं कालद्रव्यनइं अप्रदेशता कही छइ, तथा कालपरमाणु पणि कहीया छइ, ते योजननई काजि लोककाशप्रदेशस्थ पुद्गलाणुनइं विषई ज योगशास्त्रना अन्तरश्लोकमां कालाणुनो उपचार करिओ जाणवो. 'मुख्यः कालः' इत्यस्य चाऽनादिकालीनाप्रदेशत्वव्यवहारनियामकोपचारविषय इत्यर्थः ।"
तात्पर्य ओ छे के श्रीभगवतीजी वगेरे शास्त्रोमां बे वाक्य छे - १. षडेव द्रव्याणि २. कालोऽप्रदेशी. वळी 'कालपरमाणुओ' आवो शब्दप्रयोग पण आगमोमां जोवा मळे छे. हवे, 'छ द्रव्यो छे' वातनी संगति माटे जेम जीव-अजीवना पर्यायोमां ज द्रव्यपणानो उपचार करवामां आवे छे, तेम 'काल अप्रदेशी छे' आ वातनी संगति माटे, लोकाकाशना प्रदेशोमां जे छूटांछूटां परमाणुओ छे अने तेमां वर्तती जे वर्तनाओ छे, तेमां ज 'काल'नो उपचार करीने मे परमाणुओने 'कालपरमाणु' नाम आपवामां आवे छे. अन्य द्रव्योनी