________________
११६
अनुसन्धान ५२
४.१२-१४ कालो द्विविधो व्यावहारिको मुख्यश्च । तत्र व्यावहारिकः कालविभागः तत्कृतः समयावलिकादिर्व्याख्यातः, क्रियाविशेषपरिच्छिन्न अन्यस्याऽपरिच्छिन्नस्य परिच्छेदहेतुः । - तत्त्वार्थराजवार्तिक ४.१४] सूर्यनी प्रतिक्षण चालती गतिनी अपेक्षा राखतो आवलिका, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक, लव, नालिका, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि सूर्यगतिनिमित्तक व्यवहारकाल मनुष्यक्षेत्रमां ज छे केमके मनुष्यलोकना ज्योतिर्देवो (सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा) ज गतिशील होय छे ज्यारे मनुष्यलोकनी बहारना ज्योतिर्देवो (वैमानिक आदि) अवस्थित होय छे. मुख्य, निश्चय या परमार्थ काल केवळ वर्तनानो उपकारक छे११, ज्यारे गौण या व्यवहार काल अन्य स्थूळ परिणामोनो उपकारक छे. परमार्थकालमां भूतादिव्यव्यवहार गौण छे ज्यारे व्यवहारकालमां ते मुख्य छे१२.
श्वेताम्बरोना मते कालद्रव्यनुं निरूपण - जे श्वेताम्बर आचार्यो कालने स्वतन्त्र द्रव्य तरीके स्वीकारे छे तेमांना जूज आचार्यो दिगम्बर मतनो स्वीकार करे छे. आ आचार्योमां अग्रेसर छे कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य. तेओ योगशास्त्रवृत्ति १.१६मां लखे छे -
लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावानां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते ॥५२।। ज्योतिःशास्त्रे यस्य मानमुच्यते समयादिकम् ।
स व्यावहारिकः कालः कालवेदिभिरामतः ॥५३॥
परन्तु बीजा श्वेताम्बर आचार्यो दिगम्बर मत स्वीकारता नथी. तेमना मते काल अणुरूप नथी. ते समग्र लोकमां आवेलां बधां ज द्रव्योनी वर्तनानुं सहायक कारण होइ समग्र लोकमां व्याप्त छे. लोकना अग्रभागे आवेल सिद्धशिलामां स्थित मुक्त आत्माओ पण सतत सूक्ष्म परिणमनो (वर्तना) पामता रहे छे, अटले तेना सहायक कारणरूपे कालद्रव्य त्यां पण हाजर छे ज. जो के कालद्रव्य धर्म-अधर्म द्रव्योनी जेम ओक छे तेम छतां तेने असंख्यात प्रदेशो (अवयवो) छे. कालद्रव्य समग्र लोककाशमां विस्तरेलुं छे अने लोकाकाशना जे बधा ज असंख्यात प्रदेशो तेना वडे आवरित छे ते देखीती रीते कालद्रव्यना प्रदेशो समजाय. परिणामे कालद्रव्यने पण अस्तिकाय होवानो अधिकार छ, परन्तु परम्परा तो तेना सिवायना पांच द्रव्योने ज अस्तिकाय गणे छे. पण आ