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अनुसन्धान-५०
झिगमिग रहै जाली जोत, रवि जिम होत है उद्योत । जिणमै पदमसरवर जांण, वलही रांणीसर वाखांण । गहरा फाब ते गुल्लाब, सागर फतै अमृत आब । गंगेलाव फुलेलाव, चित्तमै देखवै का चाव । तापी वाव जैता कूप, रूडा नगरका है रूप । सरवर मान उदधि समांन, परगट नीर गंगा पांन । गंग ही स्यांम का देहराक, मानुं सहरका सेहराक । कुंजहविहारी परसाद, करते गगनसै अतिवाद । वडमहराजकी सुण वत्त, मंदिर करै प्रभु अनुरत्त । पासहि पावान का परगट्ट, थप्पै देहरा बहु थट्ट । जलंधरनाथ देहरा जुक्त, भेटत उपजै बहु भक्त । पूजत भूप मानसिंघ पाव, अष्ट ही सीद्ध नव नीध आव । तिनकी महिर मरूधरदेश, खलदल जात आपही षेश । नाथही कीध अचल नरिंद, इल गिर मेरु जब लग इंद । पढता मुखै तिनका पाठ, थिर रहै राज हागड थाट । वलि नप ताहि बलवंका क, शत्रव मानते संका क । पूज्यां सिद्ध इह फल पाय, तिनकै कुमी न रही काय । भगवंत देहरा भारीक, नमते सबही नरनारीक । तलहटी महिल मनमांन्या क, जगमै इंद्रलोक जाना क । कोटवाल चबुतरा कैसा क, जोवो देवलोक जेसा क । सायर ऐनका कोठार, भरीया द्रव्य बहु संभार । दर्शन देख नाथद्वारा क, भल लघु केई कै वृद्ध भा क । जो जो पासरै जेता क, कहोजी गिणे कुण केता क । परगट तिहां बहु पोसाल, बहु बहु जिहां पढते बाल । अस्थल भगतका एता क, दांन ही संतकुं देता क । मोटी वडवडी मैहजीत, पढते जवनि तिहां कर प्रीत । मोटा अडिग मनारा क, सबही देखता सारा क । तकीया फकीरांका फाब, क्या कहै आरबीका जाब । आसण मठ जिहां अनेक, योगी संयोगी है केक ।
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