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________________ डिसेम्बर-२००९ ७७ || कवित्त ।। जगमालम जोधांण, सहर सारांही शिरहर । मानसिंघ माहाराज, राज जिहां करै राजेस्वर । वरण अढारह बसत, सुखी इंदलोक समानह । अनधन घरां अपार, कदै दुख वात न मुख कह । गज अस्व थाट जिहां बहु गुनी, नगर देख सुख उपजनित । कीरत्त गजल करि कै कहूं, नरवड चित दे सुनहु नित ॥१॥ ॥ अथ गजल चाल || योध ही नगर है जेसा क, मांनु इंद्रपुर ऐसा क । कहीयै सिफत तिन केती क, जिंदमै बुद्ध है जेती क । पढतां गुनह नावत पार, अपनी मत्तमै अनुसार । महीपति मानसिंघ जिहां राज, करहै सदा ध्रम ही काज । तेजै पुंज तरुण तपंत, जिनकी किर्त्त जग जपंत । निरखत दरस नित नरनार, वधज्यौ जोति इधकी वार । इनविध देत है आसीस, वानी वदत विस्वावीस । गढ जिहां अनड अति ऊंचा क, परगट आभ लग पोहचा क । देखत छिक रहै दइवांन, जगमै लंक गढ ही जांन । भुरजां वडवडी भारी क, सबही अडग है सारी क । नव नव हाथ तिन परनाल, वैरी देख होत वैहाल । तिनका नाम किल्लातोड, कैती तिहां लाखां कोड । जंबूरेखला जूजाल, शत्रू देख जानत साल । परगट सात प्रोढी पोल, रावत करत तिहां रंगरोल । महिल्ल अटल मनमांन्या क, जगमै वड नरां जांन्या क । गहरा फाब जाली गोख, जिहां नर बैठे करते जोख । उनमै शोभते उत्तंग, चामुंड देहरा है चंग । वली करुं सहिरका बखांन, कलि(वि)जन सुनत दे दे कान । बहु जिहां चोवडा बाजार, पंकत हाट पाव न पार । झुक रही हवेल्यां झाझी क, मांहै मनुक्ष है माझी क । कोरणी खब है केसी क. इलमै देख नही एसी क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520550
Book TitleAnusandhan 2009 12 SrNo 50
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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