________________
२४
अनुसन्धान-५०
अज्ञातकर्तृका भक्तामरस्तव-सुखबोधिका वृत्ति:
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि भक्तामरस्तव परनी आ टीकानी ९ पानांनी, अशुद्धिप्रचुर प्रति निजी संग्रहमां मळी. कर्ता के लेखकनुं नाम नथी. अनुमानतः १८मा शतकमां लखायेली लागे छे. आ वृत्ति आम तो परम्परागत वाचनानुसारी ज छे. परन्तु आमां पण केटलांक स्थळोए महत्त्वना पाठभेदो जोवा तो मळे ज छे. जेमके
पद्य ६मां 'मुखरीकुरुते' प्रयोग च्चि-प्रत्ययान्त होवानुं जाणीतुं छे, आ वृत्तिमां पण ते प्रमाणे अर्थ करेलो ज छे. छतां अहीं अच्च्यन्त प्रयोगरूपे पण ते दर्शावेल छ : “मुखरी-वाचाल: कुरुते' आ रीतनो पदच्छेद अने अर्थ मनोरम पण लागे छे.
पद्य २३मां 'तमसः पुरस्तात्' पाठ मळे छे. प्रसिद्ध अने योग्य पाठ जोके 'परस्तात्' छे. टीकामां पण 'अन्धकारस्य अग्रे अर्थात् मध्यान्ध(मध्येऽन्ध) कारस्य' एवो अर्थ थयो छे.
पद्य २६मा प्रचलित पाठ छे 'जिन ! भवोदधिशोषणाय', अने अहीं जोवा मळतो पाठ 'जनभवोदधिशोषणाय'. अलबत्त, पहेलो 'जिन !' एवो पाठ विवरीने पछी ज 'जन' एवो पाठ दर्शावायो छे. तेनो अर्थ 'जनानां भवोदधि: जनभवोदधिस्तं शोषयतीति' एम कर्यो छे.
एज रीते, पद्य २७मां 'विविधाश्रयजातगर्वैः' एवो पाठ तो स्वीकार्यो ज छे, परन्तु त्यां विकल्पमा 'विबुधाश्रयजातगर्वैः' एम पाठ पण दर्शाव्यो छे, अने तेनी वृत्तिमां 'विबुधानां अन्यदेवानां आश्रय:' एम अर्थ करवामां आव्यो छे. मुख्य पाठ तरीके 'विबुधाश्रय०' अने वैकल्पिक पाठ 'विविधाश्रय०' लेवायो छे..
भक्तामर परनी विविध टीकाओ छे, जेमांथी घणी अप्रकाशित हशे. ते आ रीते प्रकाशमां आवे तो रसप्रद बने तेम छे.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org