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________________ १४८ अनुसन्धान-५० विभूषित छे. ४. प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्यम् - कल्पलतिकाटीकासहित, रचयिता : श्रीजिनवल्लभसूरिजी (विक्रमनो १२मो सैको), टीकाकार : महोपाध्याय श्रीपुण्यसागरजी, सम्पादक : आ. श्रीविजयसोमचन्द्रसूरिजी म.-विनयसागरजी, प्रकाशक : रान्देर रोड जैन संघ - सुरत, एम.एस.पी.एस.जी. चेरीटेबल ट्रस्ट, जयपुर, ई.स. २००८ ___आ ग्रन्थ प्रश्नोत्तरात्मक १६१ प्रहेलिकाओ धरावे छे. अनेक चित्रालङ्कारो आ प्रहेलिकाओमां प्रयोजाया छे. ग्रन्थमा मूकवामां आवेली टीका (रचना वि.सं. १६८०) आ प्रहेलिकाओना उकेलमा घणी सहायता पूरी पाडे छे. सम्पादन अने मुद्रण उत्तम रीते थयुं छे. विपुल ऐतिहासिक सामग्री पूरी पाडती प्रस्तावना अने ग्रन्थनी उपयोगितामां वधारो करनारां परिशिष्टोथी आ ग्रन्थ अलङ्कत बन्यो छे. or s im आगमपद्यानाम् अकारादिक्रमेण अनुक्रमणिका-१ २. प्राकृतपद्यानाम् अकारादिक्रमेण अनुक्रमणिका-२ संस्कृतपद्यानाम् अकारादिक्रमेण अनुक्रमणिका-३ ४. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रश्लोकानाम् अकारादिक्रमेण . अनुक्रमणिका-४ ___- सं. मुनि श्रीविनयरक्षितविजयजी, प्र. शास्त्रसन्देश, सुरत, वि. २०६५ शास्त्रसन्देशमाला-ग्रन्थाङ्क २५, २६, २७, २८ सन्दर्भग्रन्थो ए संशोधननी अनिवार्य मांग रही छे. जैन परम्परानो इतिहास जेवा इतिहासविषयक ग्रन्थो के जैन गूर्जर कविओ जेवा सूचिग्रन्थो वगर मातबर संशोधननी कल्पना पण न करी शकाय. अने वधु साचुं कहीए तो सन्दर्भग्रन्थोनी सहायताथी ज संशोधन वधारे प्रमाणित तेमज परिपूर्ण बने छे. वळी सन्दर्भग्रन्थोनी उपयोगिता मात्र संशोधन पूरती ज सीमित नथी; पण अभ्यास, व्याख्यान, रचना व. ज्ञानने लगती बधीज प्रवृत्तिओमां सन्दर्भग्रन्थो प्रायः अनिवार्य बनी रहे छे.. सन्दर्भग्रन्थोनी आटआटली जरूरियात होवा छतां पण आवा ग्रन्थोनुं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520550
Book TitleAnusandhan 2009 12 SrNo 50
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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