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अनुसन्धान-५०
समवायाङ्गसूत्र में, होनेवाले इक्कीसवें तीर्थंकर के रूप में जिनका उल्लेख किया गया है वे नारद श्रीमुनिसुव्रतस्वामी के तीर्थ में हुए हैं । जब कि कृष्ण वासुदेव श्रीनेमिनाथ प्रभु के तीर्थ में हुए हैं । अब यहां "नारद इक्कीसवें तीर्थंकर होनेवाले हैं इसका कारण यह हो सकता है कि वासुदेव कृष्ण भावी तीर्थंकर होनेवाले हैं।" - ऐसा विधान करना कहां तक संगत है यह सोचना चाहिए ।
और "वासुदेव कृष्ण का प्रथमतः नरकगामी होना और नारद का न होना एक अजीब सी बात है ।"
- यह खुद एक अजीब सा विधान है। क्योंकि, प्रथम तो जैन शास्त्रों के अनुसार, वासुदेव का जीव 'निदान' कर के वासुदेव बनता है, फलतः उसकी अधोगति निश्चित ही है । दूसरा, वासुदेव अपने भव में भी इतने युद्ध व आरम्भ-समारम्भादि करते हैं कि उनकी नरकगति निश्चित ही है । पर इससे यह कैसे निश्चित हो सकता है कि (वासुदेव के सम्पर्क में आने से) नारद भी नरकगामी हो ! क्योंकि नारद कोई 'निदान' करके तो हुए नहि, ना ही वे कुछ आरम्भ-समारम्भादि बडे पाप भी करते हैं कि जिससे वे नरकगामी
बनें !
ऐसी विसंगतियां इस शोधपत्र में और भी हैं, किन्तु सब को बताने का कोई अवसर नहीं है । सार इतना ही है कि ऐसे शोधपत्र लिखने के लिए कुछ अधिक सज्जता हो यह आवश्यक प्रतीत होता है। बिना सज्जता से लिख देने में संशोधकीय विश्वसनीयता को ठेस लग सकती है ।
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