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डिसेम्बर-२००९
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करते हुए उन्हें (जैन ग्रन्थकारों को) जो कठिनाई महसूस हुई, इसी के कारण जैन आचार्यों की संभ्रमावस्था दिखाई देती है ।" - ऐसा लिखना कुछ जल्दबाजी लगती है। क्योंकि जैन परम्परा में त्रेसठ शलाका पुरुष के अन्तर्गत नौ वासुदेव - बलदेव व प्रतिवासुदेव के समकालीन नौ नारंद का भी अस्तित्व स्वीकृत है । और ये नौ नारद, इसिभासिआई के प्रत्येकबुद्ध नारद व स्थानाङ्ग-समवायाङ्ग-भगवतीसूत्र-तत्त्वार्थसूत्रादि में निर्दिष्ट नारदों से तथा ऋग्वेद-पुराणादि में निर्दिष्ट नारदों से भिन्न ही है। फिर जब इनका परस्पर मिलान ही अप्रस्तुत है तब उसे करने में जैन आचार्यों में संभ्रमावस्था दिखाई देती है - ऐसा कहना कैसे उचित होगा ?
वास्तव में निरे शाब्दिक अध्ययन से व साम्यवैषम्य से कोई विधान किया नहीं जा सकता । ऐसा करने से कभी पूर्वसूरिओं का अविनय होता है और अपने अज्ञान का प्रकाशन भी, जो हमें अनधिकारी बना सकता है।
स्थानाङ्गसूत्र में व तत्त्वार्थसूत्र में जिस नारद का उल्लेख है वह व्यन्तरनिकाय की गन्धर्व जाति का देव है । उसका निकायगत स्वभाव ही गान-संगीत का है । (ऋषिभाषित में जो देवनारद ऐसा उल्लेख किया गया है वह प्रत्येकबुद्ध नारद ऋषि की पूज्यता का द्योतन करता है, किन्तु उसका स्थानाङ्गसूत्र के व्यन्तरनिकायगत देव नारद-गन्धर्व के साथ कोई अनुबन्ध नहीं
तथापि "नारद का त्रैलोक्यसंचारित्व ध्यान में रखकर उन्हें व्यन्तरदेव कहा है, और, गायनप्रवीणतानुसार उन्हें व्यन्तरदेवों के चौथे 'गान्धर्व' उपविभाग में स्थान दिया है'' - ऐसे लेखिका के कथन से यह मालूम पडता है कि लेखिका के दिमाग में एक बात बैठा दी गई है कि - 'जो नारद होता है (चाहे कोई भी हो, पर नाम से वह नारद होना चाहिए), उसे त्रैलोक्यसंचारी ही होना चाहिए और उसे गायनकुशल भी होना चाहिए। ऐसा होने के कारण वह हर जगह इसी बात का समन्वय येन केन प्रकारेण कर रही है ।।
साथ ही, ऋषिभाषित के 'श्रोतव्य' का अन्वयार्थ सुनने योग्य - श्रुतज्ञान से है, नहि कि 'श्रवणीय गायन' से । अतः ऐसे अर्थ निकालना वाजिब नहीं लगता ।
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