SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ अनुसन्धान-५० सुश्री कौमुदी बलदोटा - लिखित 'नारद के व्यक्तित्व के बारे में जैन ग्रन्थों में प्रदर्शित संभ्रमावस्था'' * - इस शोधपत्र के बारे में कुछ विचार - मुनि कल्याणकीर्तिविजय इस लेख में नारद सम्बन्धी जो कुछ लिखा गया है उस पर कुछ समीक्षा करनी आवश्यक है, ऐसा लगने से यहां पर कुछ विचार प्रस्तुत किए जा रहे हैं। पहली बात तो यह है कि, पूरे लेख का विहङ्गावलोकन करने से लगा कि लेखिका को जहां पर भी नारद शब्द पढने-सुनने मिला वहां से उसे उठाकर उन्होंने उसका समन्वय करने का प्रयत्न किया है। उनका प्रयत्न यद्यपि सराहनीय है तथापि इससे यह भी प्रतीत होता है कि उन्हें परम्परा की अभिज्ञता एवं ग्रन्थसन्दर्भो का उचित उपयोगविषयक बोध बढाना जरूरी है। 'इसिभासियाई' में जो नारदऋषि (अर्हत् नारद)का अधिकार है वे तो प्रत्येकबुद्ध मुनि हैं । उनका प्रचलित नारद के साथ कोई वास्ता ही नहीं है । फलतः इसके आधार पर यह कहना कि "श्रोतव्य-श्रवणीय का सम्बन्ध प्रमुखता से नामसंकीर्तन तथा गायन से है" इत्यादि, यह उचित नहीं है । साथ ही, ऋग्वेद के नारद, रामायण के नारद या भक्तिसूत्र के रचयिता नारद से भी इसिभासिआई के नारद का कोई सम्बन्ध अभी तक प्रस्थापित नहीं हुआ है । वास्तव में तो उन तीनों का परस्पर कोई सम्बन्ध ही नहीं है । केवल नामसाम्य से सब को परस्पर जुडे हुए मानना यह समन्वय की इच्छा का अतिरेक लगता है । तथा, “अनेक परस्परविरोधी मतों का तथा विशेषणों का मिलान * अनुसन्धान-४९ में प्रकाशित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520550
Book TitleAnusandhan 2009 12 SrNo 50
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy