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सप्टेम्बर २००९
१२९ अवलोकन करने पर भी मूल में ग्रन्थकार का नाम प्राप्त न हो सका । किन्तु वीरजिनस्तुति के चतुर्थ पद्य में 'सुन्दराचारसारा' शब्द प्राप्त होता है । इसमें प्रयुक्त 'आचार' शब्द से चरित्र ग्रहण करने पर और सुन्दर शब्द चारित्र के बाद ग्रहण करने पर चारित्रसुन्दर सिद्ध होता है।
मुनिश्री सुयशचन्द्रविजयजी को प्राप्त प्रति १६वीं सदि की लिखित है। अवचूरि सहित है । लेखन संवत् नहीं दिया है। पत्र संख्या ७ है, पंचपाठ है किन्तु कई पत्र अग्निभक्षित हैं और किनारे भी खण्डित है। लेखन पुष्पिका का प्रकार दी गई है :
"इति श्री बृहद्तपोगच्छनायक भट्टा. श्रीरत्नसिंहसूरि शिष्योपा. श्री चारित्रसुन्दरगणिविरचिताः सुन्दरस्तुतयः सम्पूर्णा । ग्रन्थाग्रन्थ १९६ श्लोकः ॥छ।। ग्रन्था ५२७ सर्व" इसमें स्पष्टत: उपाध्याय श्री चारित्रसुन्दरगणि विरचित लिखा गया है। किन्तु, अवचूरि के अन्त में "सुन्दरस्तुत्यवचूरिः" ऐसा लिखा है । इसमें श्रीसुन्दर शब्द ही लिखा गया होगा । ऐसा सम्भव है कि श्रीवल्लभोपाध्याय ने अपने नाम के समान ही 'श्री' दीक्षानाम और 'सुन्दर' नन्दीपद के समान ही इसके कर्ता भी श्रीसुन्दर माना हों । इसीलिए श्रीवल्लभ ने 'श्रीसुन्दर' कृत ही लिखा है। अन्य किसी भी स्थान पर यह नाम भी प्राप्त नहीं होता है ।
इसकी सोलहवीं सदी की एक प्रति मुझे प्राप्त हुई है जो कि मूल गात्र है । इसमें स्पष्टत: चारित्रसुन्दरगणि रचित लिखा है । इससे स्पष्ट होता है कि यमकबद्ध स्तुति चारित्रसुन्दरगणि की ही है । मूल पाठ ही है, इसमें अवचूरि नहीं दी गई है । सम्भवतः यह अवचूरि स्वोपज्ञ ही हो । श्री चारित्रसुन्दरगणि बृहत् तपागच्छीय रत्नसिंहसूरि के शिष्य थे । जिन्होंने कि संवत् १८४७ में शीलदूत नामक काव्य की रचना की थी। आचारोपदेश आदि भी प्राप्त हैं ।
अतएव यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि इस कृति के कर्ता चारित्रसुन्दरगणि तपागच्छीय है ।
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