SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ अनुसन्धान ४९ थी । इसमें उन्होंने अन्य कृति न मिलने के कारण श्रीसुन्दर की ही कृति माना और युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की शिष्य परम्परा में स्वीकार कर प्रतिपादन भी कर दिया । श्रीवल्लभगणि लिखित प्रति की लेखन पुष्पिका इस प्रकार है : "इति श्रीसुन्दरः-पण्डितप्रकाण्ड श्रीसुन्दरमुनिविरचित श्रीमत् चतुर्विंशति-जिनाधिपति-स्तुति-वृत्तिः समाप्ता ॥ लिखिता पं. श्रीवल्लभगणिना ॥श्रीः॥" इस यमकमय स्तुति का आद्यन्त इस प्रकार है : युगादिदेव स्तुतिः ।। नित्यानन्तमयं स्तुवे तमनघं श्रीनाभिसूनुं जिनं, विश्वेशं कलयामलं पर-महं मोदात्तमस्तापदम् । नित्यं सुन्दरभावभावितधियो ध्यायन्ति यं योगिनो, विश्वेऽशंकलयामलं परमहं मोदात्त-मस्तापदम् ॥१॥ xxx श्रीवीर-जिनस्तुतिः । वीरस्वामिन् ! भवन्तं कृतसुकृतततिं हेमगौराङ्गभासं, ये मंदन्ते समानन्दितभविकमलं नाथ ! सिद्धार्थजातम् । संसारे दुःखमस्मिन् जितरिपुनिकरा संश्रयन्ते घनापायेऽमन्दं ते समानं दितभाविकम-लं नाथ सिद्धार्थजातम् ॥१॥ लेखन पुष्पिका में श्रीसुन्दरमुनि विरचित ही लिखा है और लेखन में अपना नाम श्रीवल्लभगणि लिखा है । श्रीवल्लभगणि श्रीज्ञानविमलोपाध्याय के शिष्य हैं और इन्हें संवत् १६५४ के पूर्व ही गणिपद प्राप्त हो चुका था, अतएव यह संवत् १६५४ के पश्चात् की ही लेखन प्रशस्ति है। समय का प्रवाह अबाध गति से चलता रहा । इस वर्ष मुनिश्री सुयशचन्द्रविजयजी ने संकेत किया कि इस कृति के कर्ता चारित्रसुन्दरगणि हैं, प्रति प्राप्त हुई है। इसकी फोटोकॉपी भी इन्होंने भेजी । पुस्तक का आद्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520549
Book TitleAnusandhan 2009 09 SrNo 49
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages186
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy