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सप्टेम्बर २००९
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चतुर्विंशति-जिन-स्तुति के प्रणेता
चारित्रसुन्दरमणि ही हैं
म. विनयसागर
बचपना, बचपना ही होता है । इसमें भी बालहठ हो तो उसका तो कहना ही क्या ? बाल्यावस्था में बालहठ इस बात का हुआ कि पुस्तकों पर सम्पादक के नाम पर मेरा नाम होना चाहिए ! ज्ञान कुछ भी नहीं था । न व्याकरण का ज्ञान था, न साहित्य का और न ही सम्पादन का, था तो सिर्फ हठ था । उस समय मैं सिद्धान्तकौमुदी पढ़ रहा था । ज्ञान नाम की कोई वस्तु नहीं थी । अवस्था १६-१७ वर्ष की थी ।
हाँ, इतः पूर्व संवत् २०४२-४३ में श्री नाहटा-बन्धुओ के सम्पर्क में रहकर हस्तलिखित ग्रन्थों की लिपी पढ़ने और मूर्तिस्थ लेखों की लिपी पढ़ने का अभ्यास जरूर हो गया था । साथ ही हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह का भी लोभ पैदा हो गया था । इसी कारण खोज करते हुए मुझे तीन हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतियाँ प्राप्त हुई जो कि अप्रसिद्ध थी । जिनके नाम इस प्रकार हैं :- श्रीसुन्दर रचित चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः, पुण्यशील गणि रचित चतुर्विंशति-जिनेन्द्र-स्तवनानि और पद्मराजगणि रचित भावारिवारणपादपूर्ति-स्तोत्रम् । बालहठ के कारण इन ग्रन्थों का सम्पादन प्रारम्भ किया, जबकि मुझे पदच्छेद इत्यादि का भी ज्ञान नहीं था । तीनों लघु पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई, तो आत्मसन्तुष्टि हुई कि मैं सम्पादक बन गया। जब ये पुस्तकें संशोधन के लिए स्वर्गीय गणिवर्य पूज्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराज को भेजी गई तो उन्होंने संशोधित कर मुझे वापिस भिजवाई । अशुद्धियों का बाहुल्य देखकर मैं हताश हो गया, किन्तु फिर भी प्रयत्न चालू रहा ।
श्रीसुन्दर रचित चतुर्विंशति-जिन-स्तुतयः की हस्तलिखित प्रति श्रीवल्लभगणि लिखित थी और वह संस्कृत अवचूरि के साथ थी । ग्रन्थकार के नाम के आगे श्रीसुन्दरगणि लिखित था । यह श्रीसुन्दरगणि कौन थे, ज्ञात नहीं । इस पुस्तक की भूमिका स्व. श्री अगरचन्दजी नाहटा ने सप्रेम लिखी
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