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सप्टेम्बर २००८
रख भी नहीं सकते । क्योंकि दार्शनिक मान्यता के अनुसार उनका जन्म, गति, स्थान आदि हमें मालूम नहीं है । 'पितर' तथा 'श्राद्ध' संकल्पना अपने वैयक्तिक स्तरपर सीमित न करके वैश्विक स्तर तक उसका उन्नयन करके जैन परम्परा ने एक अनूठा आदर्श प्रस्तुत किया है । दृढ दार्शनिक पृष्ठभूमि का आधार देकर विसंवादिता तथा अतार्किकता भी दूर की है । संदर्भ-ग्रन्थ-सूचि १. आचारांग (आयार) : अंगसुत्ताणि १, जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान),
वि.सं. २०३१ २. उत्तराध्ययन (उत्तरज्झयण) : सं. मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन विद्यालय,
मुम्बई, १९७७ ३. ऋग्वेद : सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव, भारतीय चरित्रकोश मण्डळ, पुणे, १९६९ ४. कूर्मपुराण : २ खण्ड, पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्कृति संस्थान, बरेली,
१९७० ५. चतुर्वर्गचिन्तामणि : हेमाद्रिसूरि, सं. रामनाथ दीक्षित, रामस्वामी अय्यर
फॉन्डेशन, मद्रास, १९८५ ६. ज्ञाताधर्मकथा (नायाधम्मकहा) : अंगसुत्ताणि ३, जैन विश्वभारती, लाडनूं
(राजस्थान), वि.सं. २०३१ ७. तर्पण : ना.गो. चापेकर, पुणे, शके १८७० ८. तत्त्वार्थसूत्र : उमास्वामी, पं. सुखलालजी संघवी, वाराणसी, १९८५ ९. तैत्तिरीय ब्राह्मण : गणेश दीक्षित बापट, सं. पु.हिर्लेकर, कानपुर, शके
१९१८ १०. दशवैकालिक (दसवेयालिय) : आ. तुलसी, सं. मुनि नथमल, जैन
विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान), वि.सं. २०३१ ११. द्वादशानुप्रेक्षा (बारसाणुपेक्खा) : आ. कुन्दकुन्दाचार्यविरचित, सं. सुमतिबाई
शहा, सोलापूर, १९८९ १२. धर्मोपदेशमालाविवरण : जयसिंहसूरि, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, सं. जिनविजय
मुनि, मुम्बई, १९४९ १३. पितर व पितृलोक : पं. गणेशशास्त्री भिलवडीकर, भारतीय-वाङ्मय
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