________________
८४
अनुसन्धान ४५
संसार की ओर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच पहलूओं से देखकर जैन दार्शनिकों ने अपने विचार अंकित किये हैं । 'द्रव्य' की दृष्टि से प्रत्येक जीव ने सब अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं को अनन्त बार भोगकर छोड दिया है । 'क्षेत्र' की दृष्टि से लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं । प्रत्येक जीव के शरीर की अवगाहना असंख्यात प्रदेशप्रमाण है । असंख्यात बार एक जीव जन्म लेकर मरा है । 'काल' की दृष्टि से, एक जीव ने अनन्त काल परिवर्तन किया है । भव' की दृष्टि से चतुर्गति के सब भव पूर्ण करने को जो अनन्त काल व्यतीत हुआ उसको एक भवपरिवर्तन कहते हैं । ऐसे अनन्तभवपरिवर्तन इस जीव ने किये हैं । 'भाव' की दृष्टि से एक जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन परिणामों के वश होकर भावसंसारपरिवर्तन अनन्तकाल से करता आ रहा है । इस अतिव्यापक दृष्टि से देखे तो हर एक जीव अनन्त बार एकदूसरे के मातापिता तथा सन्तान भी बना है ।
मनुष्यगति का जीव जैन दार्शनिक मान्यता के अनुसार अगले भव में देव, मनुष्य, नारकी या तिर्यंच किसी भी रूप में अपने कर्मानुसार जन्म ले सकता है । इस स्थिति में दुनिया के किस जीव को अपना 'पितर' मानकर श्राद्ध, तर्पण तथा पिण्ड प्रदान करें ?
एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के सम्पर्क में आकर एक जीव ने उनको सुख-दुख आदि दिये हैं । इन सभी ज्ञात-अज्ञात जीवों के प्रति संवेदनशील रहना, संयम तथा अप्रमत्तता से व्यवहार करना, इनके प्रति किये हुए दुश्चरित की क्षमा मागना और अन्यों के प्रति क्षमाभाव धारण करनाये सब बातें श्रद्धावान तथा विवेकी मनुष्य के लिए आवश्यक है । सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दुष्कृतगर्हा, सुकृतानुमोदना, क्षमापना, आलोचना इन कृतियों के द्वारा साधु और श्रावक के दैनन्दिन आचार में उनका समावेश किया गया है।
ब्राह्मण परम्परा में एक व्यक्ति अपने वर्तमान जन्म के तीन पितरों · का स्मरण करके श्राद्ध, तर्पण आदि क्रियाएँ करता है। जैन परम्परा ने पितरों
के बारे में अपनी दृष्टि वर्तमान जीवन तक ही सीमित नहीं रखी है और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org