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सप्टेम्बर २००८
विधि प्रचलन से दूर हो गयी है। इसे हम अहिंसाप्रधान जैन धर्म का प्रभाव ही कह सकते हैं। (१३) पितरसम्बन्धी स्पष्ट प्रतिक्रिया :
तेरहवी शताब्दी में 'विधिमार्गप्रपा' नामक ग्रन्थ में जिनप्रभसूरि ने कहा है कि
परतित्थे तव-न्हाण-होमाइ धम्मत्थं न कायव्वं । --- पिण्डपाडणं, थावरे पूया, ---- माहे घयकंबलदाणं तिलदब्भदाणेण जलंजली, ---सवत्तिपियरपडिमाओ, ---वायस-बिरालाई पिण्डदाणं ---एमाई मिच्छत्तठाणाई परिहरियव्वाइं ॥५७
इससे यह स्पष्ट होता है कि संभवतः १३,१४ वीं शताब्दी तक ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव से कुछ जैन लोगों में श्राद्ध, पिण्ड आदि प्रथा का प्रचलन हुआ होगा । आचार्य ने इसी वजह से ब्राह्मण परम्परा के पितर, पिण्डदान, तर्पण, श्राद्ध इ. विधिविधानों का तीव्र निषेध स्पष्ट शब्दों में किया है । उपसंहारः
पितर, श्राद्ध एवं पिण्ड इन धारणाओं का विचार, ब्राह्मण तथा जैन परम्परा की दृष्टि से इस शोधलेख में किया है । ब्राह्मण परम्परा में अत्यधिक प्रचलित 'पितर संकल्पना की जैन दृष्टि से समीक्षा' की है । उसका दार्शनिक पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में अवलोकन किया है । 'आदिम मानवसमाज से लेकर आधुनिक समाज तक दृढमूल इन संकल्पनाओं का वैश्वीकरण जैन परम्परा में किस प्रकार हआ है ?' इस तथ्य की ओर विचारवन्तों का ध्यान आकृष्ट करना, इस उपसंहार का हेतु है ।।
जैन दार्शनिक धारणा के अनुसार समूचे विश्व में अनन्त जीव अनादि काल से इस चतुर्गतिसंसार में लगातार भ्रमण कर रहे हैं। दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र की आराधना के द्वारा कई जीव संसरण से मुक्त होकर सिद्धशिला पर विराजमान है।
५७. विधिमार्गप्रपा पृ. ३, पंक्ति १० से २०
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