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________________ ८२ अनुसन्धान ४५ जैन शास्त्र में मृत्यु नामक किसी देवता का निर्देश नहीं है । मृत्यु सिर्फ एक घटना है । हरेक जीव आयुष्कर्म क्षीण होने के बाद अधिक से अधिक तीन समय में (सूक्ष्म काल) अपने कर्म के अनुसार दूसरी गति प्राप्त करता है । यमराज, यमलोक, उसका भीषण स्वरूप, उसके पाश, भैंसा आदि किसी भी पौराणिक वर्णन को जैन दर्शन में आधार नहीं है । आद्य पितर यम को ही नकार कर जैनियों ने पूरी पितर संकल्पना को ही नकारा है। (१२) मांसभक्षण से पितरतृप्ति : मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में पितरों को विविध प्रकार के मांसखण्ड अर्पण करने से उनकी दो महिनों से लेकर अक्षय तृप्ति होने के निर्देश विस्तारपूर्वक दिये हैं । _ तिलैर्वीहियवैर्माषैराद्भिर्मूलफलेन वा । दत्तेन मासं तृप्यन्ति विधिवत्पितरो नृणाम् । द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान्हारिणेन तु ।५४ इसी प्रकार का वर्णन मार्कण्डेयपुराण में भी है ।५५ पृथ्वीकायिक, जलकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के वध के प्रति संवेदनशील होनेवाले अहिंसाप्रधान जैन परम्परा ने, पितरों को मांसखण्ड खिलाने के इस विधि का तीव्र निषेध किया है । आ. पुष्पदन्त 'महापुराण' में कहते हैं कि गाइ चउप्पय तणयरि जेही । सूयरि हरिणि वि रोहिणि तेही । हा हा बंभणेण माराविय । रायहु रायवित्ति दरिसाविय । पियरपक्खु पच्चक्खु णिरिक्खइ । मंसखंडु दियपंडिय भक्खइ ।५६ खुद की मांसलोलुपता के कारण ब्राह्मणों ने धार्मिक विधियों में मांसभक्षण को जो स्थान दिया उसका धिक्कार जैन आचार्यों ने किया है । आधुनिक समय में श्राद्धविधि में मांसखण्ड से पितरों का तर्पण करने की ५४. मनुस्मृति अध्याय ३.६७ से ७२ ५५. मार्कण्डेयपुराण अध्याय २९.२ से ८ ५६. महापुराण ७.८.९ से ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520545
Book TitleAnusandhan 2008 09 SrNo 45
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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