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सप्टेम्बर २००८
के देवगति के जीव माना जाय तो भी विविध तार्किक शंकाएँ उपस्थित होती हैं । हर एक प्रकार के देवों की गति, स्थिति, आयुर्मान, भोग इ. जैन शास्त्र के अनुसार निर्धारित है। उन देवों को मानवद्वारा तपित करके उनको मुक्ति दिलाना, सन्तुष्ट कराना या उनको क्रोधित करना, जैन शास्त्र के अनुसार सम्भव नहीं है।
जैन शास्त्र के अनुसार देव इ. चारों गतियों के जीव के सुखदुःख उनके खुद के द्वारा किये हुए कर्मों के ही आधीन हैं न कि उनके पुत्र के द्वारा किये गये श्राद्धादि विधि के आधीन है । (१०) 'उदक' का अत्यधिक महत्त्व :
पितृतर्पण, श्राद्ध, पिण्डदान आदि सब विधियों में ब्राह्मण परम्परा में उदक का महत्त्व अधोरेखित किया गया है । जलांजलि, तिलांजलि आदि शब्दप्रयोगों में भी जल की प्रधानता है ।।
जैन परम्परा ने इसी वजह से ब्राह्मणधर्म को 'शौचधर्म' कहा है ।५० . उदक के सम्बन्ध में जैन धारणा इसके बिलकुल विपरीत है । दृश्य जल सूक्ष्म अप्कायिक जीवों का समूह होने के कारण जल का प्रयोग न करना तथा कम से कम करना जैन परम्परा को अपेक्षित है । साधु के व्रतों में तो 'अस्नान' मूलगुण ही है ।५१ स्नान से शुद्धि, तीर्थस्थान से मुक्ति आदि संकल्पनाओं का जैन ग्रन्थों में किंचित उपहासपूर्वक ही उल्लेख पाया जाता
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स्पष्ट है कि जलांजलि आदि से पितरों को तृप्त करना जैन परम्परा को मान्य नहीं है । (११) 'यम' का आद्य पितरत्व :
प्रधानता से ऋग्वेद में३ तथा अन्य ग्रन्थों में भी 'यम' को मृत्यु की देवता, पहला मर्त्य मानव तथा आद्य पितर इस रूप में प्रस्तुत किया है। ५०. ज्ञाताधर्मकथा १.८.११३ ५१. दशवैकालिक ३.२; मूलाचार १.३ ५२. सूत्रकृतांग १.७.१३ से १७; महापुराण ७.८.१२, १३ ५३. ऋग्वेद १०.१४.१
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