SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डिसेम्बर २००७ २५ अवबोधलेशनें योगें करीनइं । अयं सबीओ नियमेण । मग्गगामिणो खु एसा अवायबहुलस्स । निरवाए जहोदिए सुत्तुत्तकारी हवइ पवयणमाइसंगए पंचसमिए तिगुत्ते । अणत्थपरे एअच्चाए अविअत्तस्स, सिसुजणणीचायनाएणं । विअत्ते इत्थ केवली एअफलभूए । सम्ममेअं विआणइ दुविहाए परिणा( ण्णा )ए। . ए विराधक सम्यग्दर्शनादि युक्त नियमें,प्राप्तबीज पुरुषनें निश्चयें विराधना निरुपक्रम क्लिष्ट कर्मवंतनइं, निरपाय मार्गगामी सूत्रोक्तकारी थाय. अष्टप्रवचनमाताई सहित सामान्यइं विशेषं पंचसमितियें समित त्रिण गुप्तिई गुप्त, अनर्थ उपजाववामां तत्पर छै प्रवचनमातानो त्याग साधकनई भावबालनइं । कोण दृष्टांतें ? बालने मातानो त्याग ते उदाहरणई । ते बाल मातानें त्यजवें मरई, तिम साधक चारित्र-प्राण-क्षरणे करी विनसैं । व्यक्त इहां भाव चिंतायें चिंतवतां सर्वज्ञ प्रवचनमातृफलभूत, सम्यक् भावपरिणतिइं अनंतर कथित जाणई बोधमात्ररूप ज्ञपरिज्ञायें, तद्-गर्भ क्रियारूप प्रत्याख्यान-परिज्ञाई । तहा आसासपयासदीवं संदीणाअथिराइभेअं । असंदीणथिरत्थमुज्जमइ । जहासत्तिमसंभंते अणूसगे, असंसत्तजोगाराहए भवइ । उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए मुच्चइ पावकम्मुणत्ति विसुज्झमाणे आभवं भावकिरिअमाराहेइ । पसमसुहमणुहवइ अपीडिए संजमतवकिरिआए, अव्वहिए परिसहोवसग्गेहि, वाहिअसुकिरिआनाएणं । तथा आश्वास-प्रकाश-द्वीपर्ने अथवा आश्वास-प्रकाश-दीपनें सम्यक् जांणइं । इहां भवसमुद्रनें विषं आश्वासद्वीप, मोहांधकार निचित दुःखगहननें वि प्रकाशदीप, एक प्लवनवान् द्वीप एक स्थिर दीप, एक अस्थिर अप्लवनवाननेऽर्थे स्थिरने अर्थे उद्यम करें सूत्रनीति, शक्तिने अनुसारें, भ्रांतिरहित, उत्सुकताई रहित, असंसक्तयोगनो आराधक-निःसपत्न श्रमणपणाना व्यापारनो कर्ता थाय, उत्तरोत्तर धर्मव्यापारनी सिद्धिइं, मुंकाई ते ते गुणनु प्रतिबंधक जे पाप कर्म तेणें । इंम विशुध्यमान छतौ भव सूधी निर्वाणसाधक क्रियाने नीपजावें । ए यथासंख्यें मनुष्यनें विषं क्षयोपशमिक चारित्ररूप, क्षायिक चारित्ररूप, क्षायोपशमिक ज्ञानरूप में ठेकाणै, पेहलो अक्षेपें इष्ट-सिद्धिनें अर्थे थाय सप्रत्यपायपणा माटें, बीजौ तौ सिद्धनें (नीपजावे), तात्त्विक प्रशमसुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520542
Book TitleAnusandhan 2007 12 SrNo 42
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages88
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy