SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ स त ( त ) मवेइ सव्वहा । तओ सम्मं निउंजइ । ए सूक्ष्मबुद्धिगम्य ते समान छें पाषाण कनक जेहनें एहवउं, समान छें शत्रु मित्र जेहनई, मट्युं छें कदाग्रहनुं दुख जेहनई एहवउ, प्रसमसुखें सहित, सम्यक् ग्रहणासेवनरूप शिक्षानें ग्रहइं, गुरुकुलवासी - गुरुकुलमां निमग्न, चित्तवृत्तिइं गुरुप्रतिबद्ध, गुरुबहुमानथी, विनीत बाह्य विनयई, भूतार्थदर्शी नथी गुरुवासथी हिततत्त्व इंम मांनई, सुश्रूषादिक गुणई संयुक्त, तत्त्वनें विषें अभिनिवेश छई जेहनई विधिमां तत्पर, रागादि विषनो परममंत्र इंम जांणी पाठें श्रवणें करी भणई सूत्र प्रति, अनुष्ठेय प्रति बांध्युं छें लक्ष्य जेणई, आसंसाई विप्रमुक्त, मोक्षार्थी, एहवो ते सूत्र प्रतिं जाणें यथातथपणई, जांणवाथी सम्यक् सूत्रनें आत्मार्थ साधनपणें जोडें । एअं धीराण सासणं । अण्णहा अणिओगो, अविहिगहिअमंतनाणं । अणाराहणाए न किंचि, तदणारंभाओ धुवं । इत्थं मग्गदेसणाए दुक्खं, अवधीरणा, अप्पडिवत्ती । नेवमहीअमहीअं, अवगमविरहेणं । न एसा मग्गगामिणो । विराहणा अणत्थमुहा, अत्थहेऊ, तस्सारंभाओ धुवं । इत्थ मग्गदेसणाए अणभिनिवेसो, पडिवत्तिमित्तं किरिआरंभो । एवंपि अहि( ही )अं अहि( ही ) अं, अवगमलेसजोगओ । " अनुसन्धान ४२ 1 ए महावीरादिक धीर पुरुषोनुं शिक्षाकरण छै । अविधि अध्ययन करवें विपर्यय, अविधिगृहीत मंत्रनें दृष्टांतई, अनाराधनाई करी इष्ट वा अनिष्ट फल नही, परमार्थथी साधनना अनारंभपणा माटें निश्चयें । अनाराधनानें विषई लिंग देखा हैं तात्त्विक देशना सांभलतां अना - रा ( अनाराधना) कर्मानई मनाग् लघुतर कर्मानें अद (व) हीलना थाई, दुख न थाय तेथीयें लघुकर्मानें अप्रतिपत्ति थाय, अवधीरणा न थाय, नही इंम भण्यं भण्यं कहीयें सम्यक् अवबोध विना, नही ए विराधना मार्गगामि जीवनें, एकांते अनाराधना अध्ययननी उन्मादादिकें अनर्थमुखा, गुरुतर दोषनी अपेक्षायें अर्थ हेतु छें, मोक्षगमनना ज आरंभथी निश्चयें, ए विराधना छतां तात्त्विक देशनामां सांभलतां अनभिनिवेश होय, हेयोपादेय आश्री सम्यग् विराधकनें प्रतिपत्तिमात्र होय, अनभिनिवेश थाय अल्पतर विराधकनें, क्रियारंभ थाय प्रतिपत्तिमात्र नही, इंम पण विराध[क] नें अधीत सूत्र अधीत कहीयें भावथी, स्यां माटें, सम्यग् - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520542
Book TitleAnusandhan 2007 12 SrNo 42
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages88
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy