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October-2007
दू. २ टबामां 'रविधवल' छे त्यां 'रवि'नो कोई सम्बन्ध बेसतो नथी. सन्दर्भ जोतां 'कुंद अनै' मचकुंद २ वि' (बेवि =बंने ) - आम गेड बेसी जाय छे. लिपिकारो यथेच्छ जोडणी, शैली वापरता - ए तथ्य पण वाचन समये लक्ष्यमां रहे£ जोइए.
_ 'भाव प्रदीप' संस्कृत साहित्यना एक रसिक प्रकार-सभाशृङ्गार के काव्यविनोद-नी सुन्दर-सरस कृति छे. सम्पादके कृति अने तेना कर्ता विशे विवरण संकलित करी आप्युं छे. थोडांक शुद्धिस्थानो :
श्लो. अशुद्ध शुद्ध २४
सिन्दूरजो० सिन्दूरजो० ११३ गृहं प्रा०
गृहप्रा० प्रशस्ति श्लो. २
नानपंकजः नाननपंकजः
अनु० ४० मां प्रकाशित 'चतुर्विंशतिजिनस्तोत्राणि' नामक प्राकृत भाषानी कति चोवीश तीर्थंकरोना जीवनसम्बन्धित ३२ स्थानक (मुद्दा)नो संग्रह करती होवा छतां प्रतिभाशाली कविए वर्णनमां विविधता तथा हृदयोर्मिओ पण गूंथी लीधी होवाथी आखी रचना कोरं वर्णन न बनतां रसाळ बनी छे. एक ज प्रकारनी विगतो कथनप्रकारना वैविध्यनी मददथी केवी स-रस रीते प्रस्तुत करी शकाय एना नमूना आ कृतिमां पुष्कळ प्रमाणमां मळे छे.
रचयिता विशे अने रचनासमय विशे सम्पादकोए चर्चा करी छे. कृतिमां ३२ स्थानकोनुं वर्णन छे. 'सप्ततिशतस्थानकप्रकरण' १७० स्थानकोनुं वर्णन आपे छे. प्रस्तुत रचना सप्तति०थी पूर्वेनी होय एवं अनुमान करी शकाय, परंतु चोक्कस निर्णय पर आववा माटे अन्य प्रमाणोनी जरूरत रहे.
कृति प्रायः शुद्ध छे. हस्तप्रतना वाचनमां केटलेक स्थळे 'उ' तथा 'ओ'ना वाचनमां भूल थई छे : स्तो. २, गा. ६ अने स्तो. ८, गा. ६मां 'अज्जाउ' छपायुं छे त्यां 'अज्जाओ' पाठ शुद्ध गणाय. स्तो. १८, गा. ८मां 'संसारउ वि नीहरिउ' ए पंक्तिमां बंने उना स्थाने ओ होवो जोईए. जैन
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