________________
५२
अनुसन्धान-४१
मुद्रित पूजा अने प्रस्तुत वाचनाना पाठोमां भिन्नतानी एक सूचि सम्पादके आपी छे, ने चर्चा पण करी छे. आ पूजाओ सर्व प्रथम मुद्रित थई त्यारे सम्पादन-संशोधननी प्रणाली स्थिर थई नहोती. भाषा के अर्थ न समजाय त्यारे तेना स्थाने भळता शब्दो लोकमुखे अने लोकजीभे गोठवाई जता. क्यारेक अशुद्ध समजीने मुद्रणकर्ता पोतानी समज प्रमाणे 'सुधारी' पण नाखता. आम त्यारना सम्पादकोना हाथे थयेलुं मिश्रण-परिमार्जन पाछळथी दृढ थई गयु. धीरे धीरे ए परम्परागत पाठ ज साचो अने आधुनिक संशोधक शोध/समीक्षा करीने पाठ नक्की करे ते 'खोटो' ज मानी लेवान वलण पण रूढ थई गयं. संशोधनपरिमार्जननी आवश्यकता विशे आजना जैनो (श्रावको अने साधुवर्ग पण) जागृत नथी- ए निराशाजनक छतां साची परिस्थिति छे.
आवी गेय कृतिओमां पाठनिर्णय करवा माटे विषय-भाषानी जाणकारी उपरांत राग-देशी-ढाळनी जाणकारी पण आवश्यक अने निर्णायक बने गीत ५, क-१मां 'ओरनकु' अने ‘ओर देवनकुं' एवा बे पाठ मळ्या छे. कयो पाठ ग्राह्य बने ए समजवा माटे रागनुं बंधारण पण सहायक थाय. सम्पादक आचार्यश्री शास्त्रीय रागोना विषयमां जाणकारी धरावे छे, तेथी ए दिशामां पण विचारी शके.
पू. २, क. १ना हवामां 'कुंकू' शब्द विशे एक पंक्ति छे. तेनो भाव एवो समजाय छे के "कृष्णवाडी"ने बदले अहीं कुंकुम शब्द लीधो छे. कृष्ण वाडी ए केसरनुं बीजुं नाम होई शके. टबामां 'खाटी' छपायुं छे, पण ए कदाच वाचनभूल होय ने अहीं 'सीटी' (साटे =माटे) शब्द होय एवो विचार आवे. 'कृष्णो' छे त्यां 'कह्यो' होवानुं कल्पी शकाय.
क्षतिपूर्ण वाचनना कारणे पाठमां निरर्थक शब्दो सर्जावा पाम्या छे. ५.१३, दू. १-२ना टबामां 'राजेवा' छपायुं छे. शब्दोना अर्थमां एनो 'राजा जेवा" एवो अर्थ पण अपायो छे. टबानो पाठ जोतां भ्रान्ति क्यां थई छे ते जणाई आवे छे. 'रत्नमां हीरा जेवा' एम वांचवाने बदले "रत्नमांही राजेवा" वांच्युं छे. ५.१५, गीत, क. १ना टबामां ‘ए तीनइं एक...' ए प्रमाणे वांचq. मोरने (?) (५.१, गीत क. २)- अहीं प्रश्नार्थ जेवू कशुं नथी. मोरनी पूंजणीथी पूंजवानी वात छे. हीरो (५.२, गीत, क. इ) नहीं, पण 'हरो'. ५.६,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org