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________________ अनुसन्धान-३८ लोकबोली गणावी छे किंतु आ रचना प्रादेशिकभाषाओ स्थापित थया पछीना समयनी छे, उच्चारभेदवाळी अवधी के व्रजभाषा होई शके. कवि जैन मुनि छे तेथी संस्कृत-प्राकृतनो प्रभाव पण तेमां जोवा मळे ए सहज छे, उपरांत अरबी-फारसी सुद्धांनो प्रभाव पण आमां छे : गरीबनिवाज, चीज, रुख जेवा शब्दो अन्य भाषानां छे. कर्ताए ‘सुदंतबत्रीसी' पण रची छे-एम ३३मा दोहानी वृत्तिमां कर्ताए जणाव्युं छे. शब्दोनी सूचिमा सम्पादके 'रुषि' कृपा एवो अर्थ नोध्यो छे. रचनामां आ शब्द ३-८, १० दोहामां वपरायो छे. "रुष' रुख एम वांचवानं छे. दो. १०नी वृत्तिमां कर्ताए 'रुख'नो अर्थ आप्यो ज छे : 'रुखशब्देन मनःपरिणतिः चित्तेच्छेति.' अर्थात् रुख एटले मनोभाव, वलण, लागणी एवो सामान्य अर्थ लेवानो छे. पछी कृपा जेवो विशेषार्थ लक्षणा द्वारा लई शकाय - जेम दो. ४ नी वृत्तिमां लीधो छे. दो. १३नी वृत्तिमां 'तथाऽनुक्तमपि' छपायुं छे. अनुक्त शब्द अहीं अर्थसंगत नथी. 'तथाऽवक्रमपि' एवो पाठ संगत बने. १४नी उत्थानिकामां '०ठन्तरदोधके' ने स्थाने 'नन्तरदोधके' ठीक लागे छे. दो. १७नी वृत्तिमा ‘परं काञ्चिद्' पाठ छे पण सन्दर्भ अनुसार 'परं न काञ्चिद्' जोइए. दो २४मां 'समदुहु' छे त्यां 'सम दुहु' एम छूटुं समजवू. वृत्तिमां 'सनः' छपायुं छे ते मुद्रणदोष छे, 'समः' वांचq. दो. ३२मां 'सुधासद भाउ' एय छपायुं छे, ते वाचनभूल लागे छे. अर्थानुसार 'सुधासुभाउ' शब्द अहीं होवो घटे. _ 'मेदपाटतीर्थमाल'ना सम्पादके लेखनी भूमिकामां मेवाडनां तीर्थोनी कृतिगत विगतोनी साथे साथे ते ते तीर्थोनी वर्तमान विगतो पण आपी छे - आ तेमना श्रम अने प्रेम, फल छे. भव्य भूतकालनी सामे वर्तमान मेवाडनी तुलना करतां सम्पादक भावुक बन्या विना रही शक्या नथी. श्लो. १९मां एक तीर्थनुं नाम नचेपुर (?) कल्प्यु छे परंतु श्लोकमां एवं नाम नथी. 'नाम्नार्थेन च या परे०' एवो पाठ छे संस्कृतमा 'या'नो अर्थ | थाय छे ते जोवानुं साधन हमणां हाथवगुं नथी. 'या'नो अर्थ लक्ष्मी थतो होय तो 'यापुर' नाम कल्पी शकाय अने नामथी तथा अर्थथी पण ए नाम बेसे. यापुर-जापुर-जाउर-जावरा एवी कल्पना पण करी शकीए. श्लो. ६मां 'श्री ईशपल्लीपुरनिश्चलासनम्' पाठ सम्भवित छे. आ अंकमां गीताना विश्वरूपदर्शन अने जैन तत्त्वज्ञाननी तलनात्मक चर्चा करतो एक अभ्यासलेख पण छपायो छे. लेखिकाए जैनदर्शननो दृष्टिकोण सारी रीते रजू को छे. जैन देरासर, नानी खाखर, कच्छ : ३७०४३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520538
Book TitleAnusandhan 2007 01 SrNo 38
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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