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अनुसन्धान-३८
में इनका जन्म हुआ था । १४६३ में जिनवर्धनसूरि के कर-कमलों से इनकी दीक्षा हुई थी । जिनवर्धनसूरि ने १४७० में इन्हें वाचक पद प्रदान किया था । १४८० में जिनभद्रसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था । १४९७ में जिनभद्रसूरि ने ही इनको आचार्य पद प्रदान कर कीर्तिरत्नसूरि नामकरण किया था । संवत् १५१२ में नाकोड़ा पार्श्वनाथ मन्दिर की स्थापना / प्रतिष्ठा भी इनके वरद हस्तों से हुई थी। इनका स्वर्गवास १५२५ वीरमपुर में हुआ था । इसकी १५३६ की प्रतिष्ठित मूर्ति नाकोड़ा पार्श्वनाथ मन्दिर के मूल गर्भगृह के बाहर ही नाकोड़ा भैरवदेव के सामने ही स्थापित है । इनके द्वारा निर्मित साहित्य के लिए देखें म. विनयसागर लिखितखरतरगच्छ साहित्य कोश ।
कल्याणचन्द्र - सम्पादक ने पृष्ठ ११ पर लिखा है :- "कीर्तिरत्नना शिष्य कल्याणचन्द्रे आ स्तवनी रचना करी हशे" स्तव के २५वें पद्य में कवि ने लिखा है
"श्रीकीर्तिरत्नसुखानि दिशतादिह परत्र पदं परं । कल्याणचन्द्रवितन्द्रवदनाकृतिरयं भवतां वरम् ॥२५॥"
कल्याणचन्द्रगणि कीर्तिरत्नसूरि के ही शिष्य थे । संस्कृत और भाषा साहित्य के प्रौढ विद्वान् थे । इनके द्वारा निर्मित कई कृतियाँ प्राप्त होती है। स्वर्गीय श्री अगरचन्दजी भंवरलालजी नाहटा द्वारा सम्पादित ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह के पृष्ठ ५१ पर श्रीकीर्तिरत्नसूरि चौपई प्रकाशित हुई है । उसके पद्य १८ में लिखा है :
'श्री कीर्तिरतन सूरि चउपइ, प्रह उठी जे निश्चल थई । भणइ गुणइ तिहि काज सरंति, कल्याणचन्द्र गणि भगतिभणंति ॥१८॥'
इनके परिचय के सम्बन्ध में खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास पृष्ठ ३५१ और साहित्य निर्माण के लिए देखें खरतरगच्छ साहित्य कोश ।
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