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जान्युआरी-2007
१. नवखण्डा पार्श्वनाथ मन्दिर - संघपति मण्डलिक ने इस मन्दिर का निर्माण कराया था और इसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १५१५ आषाढ़ वदि १ को श्री जिनभद्रसूरि के पट्टधर भी जिनचन्द्रसूरि ने करवाई थी । संघपति मण्डलिक जयसागरोपाध्याय के बृहद्भ्राता थे । वर्तमान में ये मन्दिर आबू में चौमुखजी के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है । वस्तुतः यह मण्डलिक द्वारा निर्मापित मन्दिर खरतरवसही ही है । मन्दिरस्थ मूर्तियों के लेख खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह, लेखाङ्क ५३७ से ५५६ तक प्रकाशित हैं ।
२. स्तोत्र में छन्द - अनुसन्धान के पृष्ठ १० में इस स्तोत्र के २२ से २४ पद्य वस्तु छन्द में लिखे हैं, किन्तु यति का उल्लेख नहीं किया है। वस्तुतः वस्तु छन्द प्रसिद्ध नाम है । इसी छन्द के भेदों में चारुसेना-रड्डा छन्द है। यह छन्द ९ चरणों का होता है, प्रारम्भ के पाँच चरण चारुसेना रड्डा के और अन्तिम ४. चरण दोहा के होते हैं । इन चरणों की यति १५, ११, १५, ११, १५ होती है और शेष दोहे के चार चरण होते हैं । इसके प्रथम चरण की प्रथम पंक्ति में ८ अक्षरों की पुनरुक्ति । पुनरावर्तन होता
है :
वंसु उत्तमु वंसु उत्तमु पुहविसुपसिद्ध, घण-कंचण-घण-रयण, सयणवग्गु उ मग्गमुत्तउ बहु मन्नइ धुरि नरह, नरवरिंदु आणंदजुत्तउ । सामिसलाहण-म(भ?)त्ति इध फलु इत्तलउ लहंति । भवियण जिण ! माहप्पु तुह कह मारिस जाणंति ? ॥२२॥ पद्यांक २२-२३-२४ इसी छन्द में हैं ।
प्रशस्ति संस्कृत का छन्द हरिगीत लिखा है । यह मात्रिका छन्द हरिगीता है, चतुष्पदी है, प्रत्येक छन्द में २८ मात्राएँ होती है और यति ९, ७, १२ पर होती है । (देखें महोपाध्याय विनयसागर सम्पादित वृत्तिमौक्तिक)
३. कीर्तिरत्न - नेमिनाथ महाकाव्य और लक्ष्मणविहारप्रशस्ति जैसलमेर के प्रणेता कीर्तिराज ही कीर्तिरत्नसूरि हैं । इनका अतिसंक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
शंखवालेचा गोत्रीय देपमल्ल के ये पुत्र थे । विक्रम संवत् १४४९
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