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________________ 54 अनुसन्धान-३८ पत्र चर्चा (१) जसराज ही जिनहर्षगणि हैं म. विनयसागर अनुसन्धान के अंक ३५, पृष्ठ-५३ से ५८ तक कवि जशराजकृत दोघकबावनी प्रकाशित हुई है। इसकी सम्पादिका साध्वी श्री दीप्तिप्रज्ञाश्रीजी हैं । इस दोधकबावनी के प्रारम्भ में कवि-परिचय के सम्बन्ध में सम्पादिका ने लिखा है :- सं. १७३० मा अषाढ शुदि नोमने दिने मूल नक्षत्रमा अ, दोधक बावनी तेमणे बनावी छे तेवं तेमणे छेला-५२मां दोहामां लख्यु छे. पण पोते क्यांना छे तथा साधु हता के गृहस्थ, तेवी कोई वात तेमणे लखं नथी, एटले तेमना विषे वधु वीगतो मळवा- मुश्केल छे. वस्तुतः जसराज उनका बाल्यावस्था का नाम था । दीक्षा ग्रहण करने पर जिनहर्षगणि बने थे । खरतरगच्छ की परम्परा के अनुसार जब भी कोई आचार्य पट्टधर बनता था तो अपने कार्यकाल में ८४ दीक्षा नन्दियों में से एक से अधिक नन्दियों का प्रयोग करता था । दीक्षा नन्दी में २०२५ या अधिक दीक्षाएं होने के पश्चात् वह नन्दी परिवर्तन कर देता था । जैसे बाल्यावस्था का नाम जसराज था ओर दीक्षा का नाम जिनहर्ष बना। बाल्यावस्था का नाम लोकजिह्वा पर प्रतिष्ठित होने के कारण वह नाम अन्त तक चलता रहा । जसराज, जिनहर्ष बनने पर भी स्वयं की कृतियों में दोनों नामों का प्रयोग करते थे । ये खरतरगच्छीय श्रीजिनकुशलसूरि की परम्परा में क्षेमकीर्ति शाखा में उ. शान्तिहर्षगणि के शिष्य थे । इनकी प्रथम रचना चन्दन मलयागिरि चौपई १७०४ में रचित है। अतः आपका जन्म समय लगभग १६८५ और दीक्षा समय १६९५ से १६९९ के मध्य माना जा सकता है। यह भी सम्भव है कि इनकी दीक्षा जिनराजसूरि के कर-कमलों से हुई हो । कवि का प्रारम्भिक जीवन राजस्थान में ही बीता । विक्रम संवत् १७३६ में कवि पाटण गये और वहीं के हो गये । १७३६ से लेकर १७६३ तक पाटण में ही रहे । यही कारण है कि प्रारम्भिक रचनाओं में राजस्थानी का अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520538
Book TitleAnusandhan 2007 01 SrNo 38
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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