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अनुसन्धान ३२
तत्तप्तो
प्रसन्नं
४/३/३
तत्तन्नो ४/१४/२
प्रसभं ४/१६/३ तन्मेसौ (?)
तन्मेऽसौ ४/१७/२ प्रापं (प्राप्य)
'प्रापं'पाठ योग्य ज छे ४/२५/३ रक्षो
oरिक्षो ‘पन्नर तिथि' शीर्षकवाळी रचना एक विलक्षण रचना छे. भिन्न भिन्न संस्कृतिओनुं संमिश्रण थया ज करतुं होय छे, रिवाजो-प्रतीको-शब्दावलिनु परस्पर आदानप्रदान थतुं ज होय छे. प्रस्तुत कृतिमां मुस्लिम-शैव-ब्राह्मण संस्कृतिनां तत्त्वोनुं एक जैन मुनि द्वारा जैन परम्पराना तत्त्वो साथे मिलन साधवानो प्रयास थयो छे. ऊर्दू-अरेबिक-हिन्दी-गुजराती भाषाओनो यथेच्छ उपयोग अने हिन्दू-जैन-मुस्लिम ख्यालोनु निःसंकोच संमिश्रण आ रचनामां करनार जैन मुनि-कविनो उद्देश समन्वय । समाधाननो छे अने ते छठ्ठी चालनी अवतरणिकामां-“निज-पर निज निज ज्ञान-माया-शक्त-आराध निज निजनाथभजना निज निज सिध सासण प्राप्ती" - जेवा शब्दो द्वारा स्पष्ट थयो छे. धर्म-मत-पंथना अभ्यासी वर्ग माटे आ कृति रसप्रद सामग्री पूरी पाडशे.
श्री आदिनाथ वीनति' स्तवन प्रकारनी रचनाओना प्रारंभिक काळनी रचना छे. आत्म निवेदन/आत्मसमर्पण / प्रभुगुणगाननो विषय धरावती स्तवन प्रकारनी सहस्रो कृतिओ मुद्रित-अमुद्रित स्वरूपे जैन ज्ञानभण्डारोमां मळे छे. प्रायः प्रत्येक विद्वान जैन मुनिए स्तवनो रच्यां हशे, केमके शिक्षण-प्रशिक्षण उत्तम प्रकार- मळेलुं ज होय अने भक्तिभाव तो बूंटातो ज होय, तेनी अभिव्यक्ति काव्यस्वरूपे थया विना न रहे.
कृतिनां केटलांक स्थळो अस्पष्ट रह्यां छे, तो केटलांक खोटी रीते वंचायां छे. कडी १० : 'करीउ'नो 'उ' लिपिकारना हाथे वधारानो लखायो छे. 'करी' वांचवें जोइए. आ ज कडीमां 'आलमालु' ने अशुद्ध समजी कौंसमां 'आलवालु' आप्युं छे, एटलुं ज नहि, कोशमां संस्कृतना आधारे 'क्यारो, थांभलो' अर्थ आपी दीधो छे, परंतु ते भ्रमपूर्ण छे. 'आलमालु' मध्यकालीन गुजरातीनो तळपदो शब्द छे. कडीनो समग्र अर्थ तपासतां एनो अर्थ 'व्यर्थ प्रयास, निरर्थक दोडधाम' जेवो जणाइ आवे छे. 'पखि' नो अर्थ थाय - "विना, वगर'. "तारा विना जगत आलमालु छे,व्यर्थ त्रास छे."
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