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July 2002
बीजी वात : ४२८मा पद्यनी वृत्तिमां " चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपं " इति वचनप्रामाण्यात्", एवो पाठ छे. हवे आ पाठ मूळे तो पातंजल योगसूत्रना व्यास भाष्यनी पंक्ति छे, (पातंजल० समाधिपादे सूत्र ९ना भाष्यमां) अने तेथी आ मत, योगदर्शन' नो अभिमत होवानुं सूचन मळे छे. तेथी 'अन्ये तु नो अर्थ 'पातंजलास्तु' एम कल्पी शकाय. चैतन्य, आत्मा अने ज्ञान - ए बधांनो एकान्ते अभेद माननारा अभिमतनो तेमां संकेत होवो जोईए; जे अभेद 'स्याद् 'वादी जैनोने संमत न बने, तो ते समजाय तेम छे. अथवा तो पातंजलदर्शनगत सिद्धान्तनी कोई सूक्ष्म बाबतनो आ मतांतररूपे निर्देश थयो होय तो पण शक्य छे. सूक्ष्मप्रज्ञ जनो आ विशे विशेष प्रकाश पाडी शके. परंतु, आटला उपरथी एवा तारण पर आवीए के "अन्ये तु जैनाः" एवं विवरण, अने तेथी ज तेने अनुसरीने थयेल बाकीनुं पद्यविवरण बराबर नथी, तो तेमां कांई भ्रांति नहि गणाय छतां तज्ज्ञो विशेष स्पष्टीकरण आपे तो आनंद ज थशे.
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शी.
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