SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथ नास्तिकम् 10 पञ्चभूतात्मकं 'वस्तु' प्रत्यक्षं च प्रमाणकम् । ३ नास्तिकानां मते नान्यदन्यत्रा (दत्रा ) ऽमुत्र शुभाशुभम् ॥५९॥ प्रत्यक्षमविसंवादि ज्ञानमिन्द्रियगोचरम् । ४ ५ ११ १३ १४ लिङ्गतोऽनुम (मि) तिर्धूमादिव वह्नेरवस्थितिः ||६०|| अनुमानं त्रिधा पूर्वं शेषं सामान्यतो यथा । "दृष्टेः सस्यं नदीपूराद् वृष्टिरस्तद्रवेर्गतिः ॥ ६१ ॥ ख्यातं सामान्यतः" साध्यं साधनं" चोपमा यथा । स्याद्" गोवद् गवय: सानादिमत्त्वमुभयोरपि ॥६२॥ आगमश्चाऽऽप्तवचनं स च कस्याऽपि कोऽपि च । वाच्याप्रति (ती) तौ तत्सिध्दयै प्रोक्ताऽर्थापत्तिरुत्तमैः ||६३ || बहुपीनोऽह्नि नाऽश्नाति रात्रावित्यर्थतो यथा । "पञ्चप्रमाणसामर्थ्ये वस्तुसिद्धिरभावतः ॥६४॥ स्थापितं वादिभिः स्वं स्वं मतं तत्त्वप्रमाणतः । १९ 'तत्त्वं सत्परमार्थेन प्रमाणं तत्त्वसाधकम् ||६५॥ १८ २० "सन्तु सर्वाणि शास्त्राणि सरहस्यानि दूरतः । एकमप्यक्षरं सम्यक् शिक्षितं नैव निष्फलम् ॥६६॥ १. प्रपंच पंचभूतात्मक मानइ । २. अनइ प्रत्यक्ष तेहि प्रमाण मानइ, बीजुं न मानइ ३. अनइ नास्तिक मति इहा नइ परलोकि शुभाशुभ नथी । ४. प्रत्यक्षइ जूठउ न थाइ ते ज्ञानेंद्रिय करी देखयइ ते प्रमाण मानइ । ५. नास्तिक अनुमानना ६ अंग कहइ चिह्नइ करी (१) मविवइ करी (२) स्थितइ करी (३); जिम धू की वह्नि जाणी तिम अनुमानना ए ३ अंग अहिन्हणि आतलूं आतलूं इत्यादि, चिरका [ल] लागइ स्थिति । ७. नास्तिक शेष थाकती सिद्धि जे ते सामान्याकारि कहइ ८. जिम निष्पत्तिइ धान्यनइ मानइ । ९. नदी पूरइ वृष्टिनइ मानइ । १०. आथम्यइ रविनी गतिनइ मानइ । एतलइ नास्तिकनउ मत पूरउ थयुं । ११. सामान्य प्रकारि विख्यात हुइ ते साध्य । १२. ओपमाइ करी देखाडीयइ ते साधन १३. जिम गाइ सरिखउ गवय कहेतां अरण्य पशु, ते किम कांबलउ बिहुंनइ सरीखुं हुइ । १४. यथार्थ बोलणहारनउ वचन . आगम कहीयइ । १५. ते आप्तभाषी कहइ एकनइ को एक छइ । १६. उत्तम पुरुष एहनइ अर्थापत्ति कहइ ते वाच्यनी प्रतीतिनइ विषइ तेहनी सिद्धिनइ काजइ । १७. जिम घणू जाडउ अनइ दीहइ न जिमइ तउ जाणीयइ ते रात्रइ जिमइ ज छइ, ए अर्थापत्ति प्रमाण । १८. पांचे प्रमाणे करी वस्तुसिद्धि कहर | १९. को एक अभावथी कहइ ए छइ प्रमाण । २०. परमार्थइ करी तत्त्व ते सत्य, अनइ प्रमाण ते जे तत्त्वनइ साधइ । २१. सर्वशास्त्र हुउ किंलक्षणानि सर्पाणिरहस्य, दूरि छइ पिणि एक अक्षर सीख्यउ हुइ रुडी परइ ते निष्फल न हुइ किंतु सफल ज हुइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520514
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages144
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy