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________________ Jain Education International वीतभयपत्तन कहां है लेखक पंन्यासजी महाराज श्री समुद्रविजयजी गणि जिस वीतभयपत्तन में, महाराजा उदयन और प्रभावती राणी विद्युमालदेवकृत कपिलवली प्रतिष्ठित भावसाधु श्री महावीर देव की प्रतिमा की अर्चनादि भावभक्ति किया करते थे, जिसे जंगमकल्पतरु चरम तीर्थकर श्री महावीर प्रभुने अपने पादारविन्दसे पुनीत किया था, जहां महाराजा उदयन अंतिम राजर्षि हुए थे उस वीतभयपत्तनका वृत्तांत शास्त्रों में ग्रंथों में पाया जाता है, परन्तु क्या आजतक किसीके हृदय में यह प्रश्न उठा है कि यह वीतभयपत्तन है कहां ? मैं आज इस लेख में उस वीतभयपत्तन पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न करता हूं, आशा है कि इसे पढकर सब जैनबंधु इस तर्फ ध्यान देगें, और विद्वद्वर्य, साहित्यवेत्ता एवं प्राचीन वस्तु संशोधक महानुभाव इस विषय पर विशेष प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे । वीतभयपत्तन पंजाय देशान्तर्गत जेहलम जिले में जेहलम नदी के तटपर दबा हुआ छोटासा पहाड जैसा नज़र आता है । वहाँ बडे बडे मकानों के चिह्न दृष्टीगोचर होते हैं, खुदवाई कराने पर सिक्के आदि अनेक चिज़े व भग्नावशेष नज़र आते हैं । 'उपदेश प्रासाद' ग्रंथ में इस प्रकार का वृत्तांत उपलब्ध होता है सिंधुसौवीर देश में वीतभयपतन महाराजा उदयन का मुख्य शहर था। यहां ही महाराजा उदयन राज्यकारभार करते थे, उनके प्रभावती नामा राणी और अभिची नामा पुत्र था । विद्युन्मालीदेवने आत्मकल्याण के लिए बोधी बीजकी प्राप्ति के लिए गृहस्थपन में चित्रशाला में कार्योत्सर्ग में रहे हुए भावसाधु श्री महावीर प्रभुकी तादृश प्रतिमा बनवा के कपिल नामा केवली के पास प्रतिष्ठित करवा के किसी एक वेपारी को दे दी । वह प्रतिमा महाराजा उदयन और महाराणी प्रभावती के पास आगई । अन्यन्त आदर के साथ प्रभुप्रतिमा को लेकर गृहचैत्यालय में स्थापन करके महाराजा और महाराणी प्रभुभक्ति किया करते थे। प्रभु के समक्ष महाराणी नाटक किया करती थी और महाराजा स्वयं वीणा बजाते थे । महाराणी के बाद उसकी देवदत्ता नामा कुबडी दासी प्रभुभक्ति किया करती थी । भवितव्यता के योगसे वो कुबडी दासी सुंदर रूपवाली बन गई, महाराजाने उसका नाम सुवर्णागुलिका रख दीया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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