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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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पद - १ आदि गाथा - चारित्रपति श्री चारित्र पार्श्व नवनिधि श्रीगृहध्येयं । पद - १ अन्त- चारित्रनन्दि श्री संततिदायक पार्श्वचारित्र जिन ज्ञेयं ॥ ५ ॥ पद - २ अन्त - निधिचारित्र आदर ज्ञानानन्द रमायो | ३ |
पद - ३ अन्त - चारित्र नवनिधिसरूप ज्ञानानन्द भाई | ४ |
पद - ४ अन्त - तरवरंग चारित्रनन्द ज्ञानानन्द वास के । ३ । पद - ४१ अन्त - नवनिधि चारित्र आदर ज्ञानानन्द समर ले |४ |
"
इसी प्रकार सभी पदों के अन्त में कहीं ' नवनिधि चारित्र ज्ञानानन्द', कहीं ' निधिचारित्र ज्ञानानन्द और कहीं ' चारित्र ज्ञानानन्द' रूप से कर्ताने अपना परिचय दिया है, जो उपर्युक्त वंशवृक्षानुसार ही है । हमारे कथन में कोई सन्देह का अवकाश नहीं रह जाता ।
अतः
अब चारित्रनन्दिजी के उपर्युक्त ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय दे दिया जाता है जिससे ज्ञानानन्दजी का समय भी निश्चित हो सके ।
१ पंचकल्याणक पूजा - संवत् १८८८ संभवनाथजी के च्यवन कल्याणक के दिन कलकत्ते में महताबचन्द आदि श्रावकों के आग्रह से रचित । इसकी सं. १९२९ में अभीरचन्दजी की लिखी १४ पत्र की प्रति कुशलचन्द्र पुस्तकालय में है । पत्र चिपक जाने से कहीं कहीं पाठ नष्ट हो गया है ।
२ नवपद पूजा ।
३ इकवीस प्रकारी पूजा ।
४ रत्नसार्धशतक - सिद्धांतों के दोहन स्वरूप १५१ बोलमय १७ पत्रों की, स्वयं कर्ता के हस्ताक्षरों में लिखी यह प्रति उपाध्याय सुखसागरजी के शिष्यों के पास बम्बई में है । इसकी रचना संवत १९०९ मे कृष्णाष्टमी के दिन इन्द्रनगर- इन्दौर के पिप्पली (बाजार ) धर्मशाला मे ऋषभदेवस्वामी के प्रसाद से अपने शिष्य कल्याणचारित्र और प्रेमचारित्र के लिये की गई व प्रति लिखी गई ।
इन ग्रन्थों में पंचकल्याणक पूजा में खरतरगच्छोय अक्षयसूरिजी के पट्टधर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी की आज्ञानुसार प्रस्तुत पूजा बनाने का उल्लेख है, अतः आप खरतरगच्छ की जितरंगसूरि शाखा - लखनऊवालों के आज्ञानुवर्ती थे यह भी स्पष्ट हो जाता है। संभव है उक्त शाखा के लखनऊ आदि के भंडारों का निरीक्षण करने पर आपकी व आपके शिष्य ज्ञानानन्दजी आदि की अन्यान्य कृतियां भी उपलब्ध हों, और उस के आधार से ज्ञानानन्दजी Jain Education का दीक्षानाम क्या था यह भी निश्चित हो सके ।
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