SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१४] ચી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ ४ %3 होगा। अब वे अवश्य सहायता करेंगे।" शान्तनु-“निर्धन दीन दुःखी सहधर्मी बन्धुओ की सहायता करना धनि श्रावक का कर्तव्य है क्या ?" कुंजी देवो-“धन परिग्रह है, परिग्रह ही पाप है, इसका त्याग करना पुण्य या निर्जरा का हेतु है, और इस प्रकार की भक्ति करना ही सच्चा त्याग है। इसके बाद शान्तनु जिनदास के यहाँ चला गया। जिनदास सेठ के घर पहुंच कर शान्तनु ने वह हार गिर रखने की अपनी इच्छा प्रगट की और कहा-" सेठजी, मुझे इस हार के एवज में पांच हजार रुपैया चाहिए।" जिनदास ने अपने पुत्र को आदेश दिया--कुंधर, इस हार को सम्भालकर रख और उसके बदले इनको पाँच हजार रुपैया गिन दे।" कुंवर ने हार पहिचान लिया। वह बोल उठा “पिताजी, यह हार तो घही है जो कल खो गया था। इसके बदले में पांच हजार रुपया!" जिनदास ने कहा--" बेटा! ऐसे तो कई हार होते हैं। शान्तनु भाई तो एक श्रीमंत हैं। ऐसे हार इनके यहाँ कई होंगे। रुपैया न होने से ऐसा करना पड़ता है।" और शान्तनु को पांच हजार रुपैया मिल गये। इन रुपैयों से शान्तनु ने व्यापार किया और द्रव्य कमाया। द्रव्य प्राप्त होते ही उसकी स्त्री कुंजी देवी ने व्याज सहित जिनदास का रुपया लौटाने को कहा। शान्तनु जिनदाससेठ के पास आकर बोला " सेठ साहब, यह आपके रुपैया ले लीजिये।” सेठने रुपैया ले कर अपने लडके को हार शान्तनु को वापस दे देने की आज्ञा की । इस समय शान्तनु बोला--" सेठजी हार आपके पासही रहने दोजिये, आप और मैं इस गुप्त बात को जानते हैं।" जिनदास सेठ शोक प्रदर्शित करते हुए बोले--"भाई, मेरी भयंकर भूल हुई, तुम इस भूल को क्षमा करो।" शान्तनु, चोरी करने की बात याद आते ही अश्रुपात करने लगा। जिनदास सेठने उसे शांत्वना देते हुए, “ यदि पैसे की आवश्यकता पड़े तो फिर आना और ले जाना' ऐसा कह विदा किया। कुछ दिनों के पश्चाद् भगवान महावीर स्वामी का उस और शुभागमन हुआ। प्रभु भव्य आत्माओं को तारने लिए धर्मदेशना फरमाने लगे। वहाँ दो गृहस्थ प्रायश्चित्त लेने उठे। एक कहता है मैंने सहधर्मी भाई की चोरी की। दूसरे ने कहा द्रव्य होते हुए भी मैंने सहधर्मी भाई की सहायता न की। धन्य कुंजी देवी, धन्य जिनदास सेठ, धन्य शान्तनु और धन्य जैनधर्म ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy