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________________ 4.] સહમ है। अतः वह बिना चोरी कीए नहीं मानेगा। कुंजी देवीने शान्तनु से कहा यदि तुम्हारी इच्छा चोरी ही करने की है, तो किसी सहधर्मी के यहां करना । शान्तनु ने इस बातको स्वीकार कर ली। शान्तनु संध्या समय उपाश्रय में गया और जिनदास सेठ के निकट अपना आसन बिछा प्रतिक्रमण करने लगा। प्रतिक्रमण संपूर्ण होने के पूर्व ही शान्तनु जिनदास सेठ के जेबसे सात हजार का कीमती मोतियों का हार निकाल चलता बना। जिनदास सेठ प्रतिक्रमण करके उठे और अपनी जेब में हाथ डाला तो मालूम हुआ कि हार गायब है । सेठ चिंताग्रस्त होकर सोचने लगे। अन्तमें उन्हे मालुम हुआ कि सबसे प्रथम शान्तनु ही गया है, वही हार ले गया होगा । शान्तनु के पूर्वज कुलवान, धनवान और दानी थे, किन्तु इस समय उसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। सेठने दीर्घ दृष्टि से विचार किया कि, एक सहधर्मी के नाते उसकी सहायता करना मेरा कर्तव्य था; किन्तु खेद है कि मैं अपने कर्तव्य से घूका इसी लिए उसे चोरी करने को आवश्यकता हुई। प्रकृतिने मेरी भूल सुधारने के लिए शान्तनु को ऐसा मार्ग सझाया, ऐसा विचार करते हुए सेठ घर पर पहुँचे। दूसरे दिन प्रातःकाल शान्तनु ने अपनी स्त्री कुंजी देवी को उस हार की कथा सुनाई जो जिनदास की चोरी करके वह लाया था। कुंजी देवी ने कहा "बहुत अच्छा, अब यह हार जिनदास सेठ के यहां गिरवी रख रुपैया ले आओं"। शान्तनु ने उत्तर दिया "किन्तु हार तो उन्ही का है, यदि पहिचान लेगा तो गिरफतार करा देगा" __“पहचान तो अवश्य लेंगे, परन्तु गिरफतार नहीं करावेंगे।' कुंजी देवी ने विलक्षण बात कही। "कारण ?" शान्तनु की जिज्ञासा जाग्रत हो उठी। "वह एक सच्चा श्रावक है।" कुंजी देवी ने स्वस्थपन से जवाब दिया। "क्या श्रावक अपने अपराधी को क्षमा कर देता है ? " शान्तनु की उलझन सीमातीत होती जाती थी। ___ “श्रावक अपने अपराधी को अवश्य दंड देता है, किन्तु वह तुम्हें दर नहीं देगा।" कुंजी ने फिर भी उसी स्वस्थपनसे कहा। "कारण ?" अब भी शान्तनु कुछ नहीं समज सका। " उससे सहधर्मी धन्धु की सहायता न करने की भूल होने से।" कुंजी देवी ने कहा। शान्तनु-"क्या वे इस भूल को समझ गए होंगे ?" कुंजीदेवी-" निःसंदेह, सहायता न करने पर उनको खेद भी हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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