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________________ [ 1] श्री सत्य IN [१ . दोहराते हुए लिखा गया है कि प्रशस्ति से एक बात यह भी ज्ञात होती है कि उन की दीक्षा देनेवाले श्रीहीरविजयसूरीश्वरजी ही हैं। पर यह बात बिना विशेष सोचे, प्रशस्ति के नामसे लिखी गई हैं। प्रशस्ति में न तो उनका लुंपकगच्छ के आचार्य होने का लिखा है और न श्रीहीरवि. जयसरिजी से दीक्षा लेनेका भी। और न यह संभाव्य भी है। पंन्यासजी महाराजने दी हुई परंपरा से भी स्पष्ट है कि वे श्रीहीरविजयसरिजी से ५-६ नंबर में हैं अतः श्रीहीरविजयसूरिजी उन्हें दीक्षा कैसे दे सकते थे ? श्रीहीरविजयसूरिजी का स्वर्गवास स. १६५२ में हुआ है और मेघविजयजी का कृतिकाल सं. १७२५ से १७६० तक है। प्रस्तुत 'युक्तिप्रबोघ' की प्रशस्तिसे स्पष्ट है की वह ग्रंथ श्रीबिजयरत्नसरिजीके राज्य में रचा गया था, जिन श्रीविजयरत्नसूरिजी का समय सं. १७३२ से १७७३ तक का है। अतः वे श्रीहीरविजयसूरिजी के दीक्षित नहीं हो सकते। उनको टुंपक गच्छ के अधिपति लिखना-यह श्रीहीरविजयसूरिजी से सं. १६२९ में लुका मेघऋषिने दीक्षा ली थी उन मेघविजयजी को और इन उपाध्याय मेघविजयजी को एक मान लेने की भूलका परिणाम है। वास्तव में ये दोनों भिन्न भिन्न थे। और युक्तिप्रबोध' ग्रंथ के कर्ता का समय १७६० तकका है। सहधर्मी [सहधर्मी प्रेमकी एक उस्म्पल कहानी ] लेखन-श्रीयुत नथमलजी बनोरिया. भगवान महावीरस्वामी के समय में शान्तनु नामक एक श्रावक था। उसकी श्रीका नाम था कुंजी देवी। शाम्तनु के पुरखे कुलवान और धनवान थे, किन्तु समय के चक्रने शान्तनु को दीन हीन दशामें ला छोडा। जो अपने पिता के समय में सोने के कटोरे में दूध पीया करता था, चांदी के खिलोनो से खेला करता था, मुंहसे निकलने के पहिले ही जिसको समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो जाया करती थी, घही शान्तनु आज दाने दाने का मोहताज था। ऐसी दशा में उसका चित्त व्यग्र हो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। इस व्यग्रता में शान्तनु कई प्रकार के मनसुबे बांधता और विखेरता था। आखिर एक ही निर्णय पर आया, कि चोरी कर धन प्राप्त करना चाहिये। अपना यह विचार अपनी स्त्री कुंजी देवी से कहे। कुंजी देवी जानती थी कि शान्तनु को व्यापार के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता १ 'पट्टावली समुच्चय' पू. १०९ में इन्हें स. १६५९ में विजयसेनJain Education International रिसे दीक्षिन लिखा है षह ठीक नहीं है। www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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