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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ-વિશેષાંક
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वर्ष बाद खारवेलने चढ़ाई की, और पुष्यमित्र को अपने आधीन कर लिया। राजा नन्द द्वारा लाई गई श्रीऋषभदेवजी की मूर्ति महाराजा खारवेल अपनी राजधानी में ले आया । मगध की चढ़ाई के विषय में श्री काशीप्रसादजी जायसवाल कहते हैं कि- खारवेलने मगध पर दो बार चढ़ाई की थी, पहली बार गोरथगिरि का गिरि दुर्ग जो अब ‘बराबर' पहाड़ कहलाता है, लिया और राजगृह पर हमला किया । उस समय यवन राजा 'डिमित' पटना या गया की ओर चढ़ाई कर रहा था, महाराजा खारवेल की वीर कथा सुनकर भाग निकला। __इस प्रकार यवनों को भारत से बाहर खदेड़ने का श्रेय भी महाराजा खारवेल को है। शिलालेख से यह भी प्रतीत होता है कि महाराजा खारवेल एक वर्ष दिग्विजय के लिये निकलते और एक वर्ष घर पर रहते हुए महल बनवाते, दान देते एवं अन्य प्रजाहित के कार्य करते थे ।
महाराजा खारवेलने राज्य के ९ वे वर्ष कलिंग में महाविजय प्रासाद बनाया।
हस्तीगुफा के आसपास अन्य भी अनेक गुफाये हैं, कहा तो यहां तक जाता है कि यहां पर ७५२ गुफायें विद्यमान थीं जहां पर साधु-मुनि तपस्या करते थे, यद्यपि अब उतनी उपलब्ध नहीं तथापि हाथीगुफा की खोज करने के साथ अनन्तर गुफा, सर्प गुफा, व्याघ्र गुफा, शतधर गुफा आदि का पता लगा है । जैसे हस्तीगुफा में खारवेल का जीवन अङ्कित है वैसे मांची गुफा में श्री पार्श्वचरित्र पूर्ण अङ्कित है और गणेशगुफा पर भी पार्श्वनाथजी का कुछ चरित्र अङ्कित मिला है।
महाराजा खारवेल की दूसरी स्त्री सिंधडा ने अपने पति की कीर्ति के लिये गिरिगुहा प्रासाद बनवाया जिसे अब रानीगौर कहते हैं, उसमें उसके पिता का नाम दिया है, तथा पतिको चक्रवर्ती कहा है जिसे अंग्रेजी में Emperor कहते है। डाक्टर विन्सेट स्मिथ ने भी इसे स्वीकार किया है।
महाराजा खारवेलने भी आचार्य श्रीसुस्थितसूरि की अध्यक्षता में कुमारगिरि पर जैन सभा एकत्रित की, दूर देशान्तर से जैन मुनि और सेठ आदि अधिक संख्या में सम्मिलित हुए इस । सम्मेलन में आकर्षण था, कुमारगिरि की यात्रा होना, अनेक मुनियों के दर्शन, तथा परस्पर विचार विमर्श का अवसर प्राप्त हुआ । इस सभा का मुख्य उद्देश्य तत्कालीन दुर्भिक्ष से लुप्त होनेवाले आगमों का उद्धार करना था । आचार्यश्री के भाषण के बाद महाराजा खारवेल ने जिनागम और जिनमन्दिरों के उद्धार की घोषणा की, महाराजा खारवेल जैनधर्म प्रचार की प्रबल भावनायें रखता था, परन्तु उस वीर का ३७ वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हो गया।
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