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માને સિતારે
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इतना भली भांति प्रतीत हो जाता है कि महाराजा खारवेल जैनधर्म का अनन्य उपासक था। महाराजा खारवेल को भिक्षुराजा भी कहा
जाता था ।
महाराजा खारपेलने अपने राज्य के प्रथम वर्ष में प्राचीर दुर्ग आदि दृढ़ कराये, सैनिक विभाग आदि व्यवस्थित किये और दूसरे वर्ष से ही दिग्विजय करना प्रारम्भ किया ।
कलिङ्ग विजय - कलिङ्ग देश के विषय में जैन शास्त्रों में कहा है कि श्री ऋषभदेवजीने अपने पुत्र को यह प्रदेश दिया था, सम्भवतः उसीके नाम से इसका नाम कलिङ्ग हुआ यद्यपि यह प्रदेश ममप्रदेश के निकटवर्ती था, परंतु ने इस देश को अपने आधीन नहीं किया था। क्यों कि कलिङ्ग देश के वीर स्वतंत्रता के लिये प्राण न्योछावर करना जानते थे, वे अपने देश पर किसीका भी शासन सहन करने को तैय्यार न थे, उन पर विजय करना साधारण बात नहीं थी । यद्यपि अशोकने उन पर विजय प्राप्त की थी, परंतु अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य निर्बल हो जाने से कलिङ्ग देश फिर स्वतंत्र हो गया । और उस पर फिर आधिपत्य करने का श्रेय महाराजा खारवेल को हुआ, ई. स. १७३ पूर्व महाराजा खारवेल कलिंग राज्य के सिंहासन पर अभिषिक्त हुआ और राज्याभिषेक की सब किया वैदिक रीत्यनुसार हुई।
अशोक के साम्राज्य में कलिङ्ग की राजधानी तोशली ( वर्तमान धौली थी. महाराजा खारवेलने भी यही तोशली ही राजधानी रखी।
इसके बाद महाराजा खारवेल को दक्षिणेश्वर और इस प्रकार आन्ध्र प्रदेश पर विजय प्राप्त कर राष्ट्रिक आदि देश भी जीत लिये ।
शातकर्णी से युद्ध हुआ सूषिक, भोजक और
महाराजा खारवेलने राज्य प्राप्ति के छट्ठे वर्ष राजसूय यज्ञ किया जिसमें प्रजा के कर आदि क्षमा किये, ब्राह्मणों को जातीय संस्थाओं के लिये भूमि प्रदान की और उनको हर तरह से सहायता दे कर सन्तुष्ट किया।
मगधदेश में पुष्यमन्त्रीने अपना शासन दृढ़ कर लिया था, उसने यहां पर अश्वमेध यज्ञ कर अपने को सम्राट घोषित किया। परंतु जैन धर्मानुयायियों एवं मुनियों पर उसके अत्याचार होते रहे । महाराजा खाग्येने मगधदेश पर आक्रमण कर राजगृह को पेर लिया, वहां का राजा मथुरा चला गया। महाराजा खारवेल उसे शिक्षा ही देना चाहते थे इस लिये वे वापस लौट आये परंतु पुष्यमित्र के अत्याचार बराबर पटने गये और उसने जैन साधुओं को अधिक सताना शुरु किया। जैन संघ द्वारा यह समाचार खारवेल को पहुंचते रहे, प्रथम आक्रमण के चार
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