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________________ जिन सूत्र भागः लेकिन फिर भी आंखें एक भ्रम देती हैं कि जैसे सब थिर है। | हजारवें हिस्से का खयाल है। तो ही...। तुम रोज बूढ़े हो रहे हो लेकिन मन ऐसा ही माने रखता है कि सब | जैसे-जैसे बहुमूल्य को पहचानना हो वैसे-वैसे तुम्हारे ठीक चल रहा है। सब वैसे का वैसा ही है। रोज सुबह आईने के | बांट-बटखरे ज्यादा सुनिश्चित होने चाहिए। और एक ही सामने खड़े होकर तुम अपने को देख लेते हो, लगता है, सब बटखरा है, एक ही बांट है हमारे पास, वह है जागरूकता का, ठीक है। वैसा का वैसा है। होश का, ध्यान का। नाम कुछ भी हो, बांट एक ही है। यह प्रक्रिया इतनी धीमी है और तुम्हारा होश इतना कम है। तो या बहुत स्पष्ट होना चाहिए। इसमें रत्ती-रत्ती का पता चलना तो प्रक्रिया बहुत तेजी से हो तो कुछ हो सकता है। कि रात तुम चाहिए। यह ऐसा मोटा, साग-सब्जी तौलने जैसा बांट न हो, सोओ जवान और सुबह बूढ़े हो जाओ तो शायद तुम्हें अकल सोना तौलने जैसा; या वैज्ञानिक का कांटा हो, जहां रत्ती का आए कि अरे! सब क्षणभंगुर है। लाखवां हिस्सा भी पहचाना जा सकता है कि कम हुआ कि मगर बूढ़ा होना इतने धीमे-धीमे होता है, इतने ज्यादा हुआ। | आहिस्ता-आहिस्ता होता है, इतने रत्ती-रत्ती होता है, कि पता ही तो तुम्हारा होश बढ़े। नहीं चलता। एक-एक बूंद रीतता है सागर। ऊपर से ऐसा पहली भावना है: अनित्य। चलते, उठते, बैठते, सोते, लगता है, वही का वही; वैसा का वैसा है। जागते एक बात तुम्हारे भीतर सतत बनी रहे; एक स्मरण बना तो या तो जो क्षणभंगुरता है, वह बड़ी तीव्रता से, त्वरा से घूमने रहे-सब बदल रहा है, सब बदला जा रहा है। लगे कि घर के बाहर गए, लौटकर आए, पत्नी बूढ़ी हो गई। गए क्या होगा इसका परिणाम? इसका परिणाम यह होगा कि तुम थे तो जवान छोड़ गए थे। घर के बाहर गए, लौटकर आए तो मोहग्रस्त न होओगे। जो बदल ही रहा है उसको पकड़ने का कोई | देखा, कि घर राख हो गया। गए थे तो बिलकुल अभी महल की | अर्थ नहीं है। जो जा ही रहा है, जाएगा ही, उसके साथ लगाव तरह खड़ा छोड़ गए थे। लौटकर आए तो रेत पड़ी है, रेत का ढेर | और आसक्ति बनाने का कोई अर्थ नहीं है। जो छूटेगा ही, वह लगा है। छूट ही गया। बुद्धिमान व्यक्ति को इस संसार में पकड़ने को या तो ऐसा हो...ऐसा तो होता नहीं है। ऐसा तो स्वभाव नहीं | कुछ भी नहीं, क्योंकि कुछ पकड़ा ही नहीं जा सकता। यहां थिर वस्तुओं का। तो फिर दूसरा उपाय है, कि तुम्हारा बोध गहरा हो, कुछ भी नहीं है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति कोई अपेक्षा नहीं तुम्हारा होश गहरा हो कि बहुत धीमे से, बारीक से हो रहे फर्क | रखता थिर होने की। को भी तुम पहचान पाओ। बह भी आंख से बच न जाए। | अगर तुम महावीर को जाकर धोखा दे दो तो महावीर चकित जागकर देखो तो तम हर सबह चेहरे में अंतर पाओगे। नहीं होते। तम्हारा मित्र तम्हें आकर धोखा दे दे, तम चकित होते लौटकर घर आओ, तुम अंतर पाओगे। लेकिन बड़ी जागरूकता हो। क्या कारण है? तुम चकित होते हो क्योंकि तम मानते थे, चाहिए होगी। क्योंकि अंतर बड़े आहिस्ता हो रहे हैं, बड़े | कि मित्र सदा मित्र रहेगा। थिरता की अपेक्षा कर रहे थे क्षणभंगुर धीमे-धीमे हैं। जगत में। यहां कोई थिर नहीं है। न शत्रु थिर है, न मित्र थिर है। ऐसा समझो कि बाजार में कोई साग-सब्जी तौलता है तो मोटे कल मित्र शत्रु हो सकता है, शत्रु मित्र हो सकता है। सब चीजें बांट-बटखरों से तौलता है। कोई फर्क नहीं पड़ता, तोला इधर बदल रही हैं। सब चीजें उथल-पुथल में हैं। कि तोला उधर, साग-सब्जी है। सोना नहीं तौला जाता ऐसे। लेकिन तम सोचते थे, मित्र सदा मित्र है। और जब मित्र धोखा बांट-बटखरे हर तरह के काम नहीं दे देंगे। रत्ती-रत्ती का हिसाब दे जाता है, तुम एकदम चौंककर खड़े रह जाते हो। तुम चकित रखना होता है। तो सुनार भी तौलता है लेकिन वहां रत्ती-रत्ती का हो जाते हो। हिसाब है। लेकिन यह भी तौल बहुत गहरी तौल नहीं है। तुम चकित मित्र के कारण नहीं होते, न उसके धोखे के कारण वैज्ञानिक तौलता है, वहां तो रत्ती का भी हजारवें हिस्से का होते हो। तुम अपनी थिर अपेक्षा के कारण चकित होते हो। खयाल है। वहां तो सेकेंड-सेकेंड का खयाल है। सेकेंड के तुम महावीर को जाकर धोखा दे आओ, कोई अंतर न पड़ेगा। -378 Ja Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340150
Book TitleJinsutra Lecture 50 Dhyanagni se Karm Bhasmibhut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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